भारत का संविधान – एक परिचय Constitutional Values and Fundamental Duties B.A Hons. Pol Science, B.A (Programme)

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ Features of Indian Constitution – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए; दृढ़संकल्पित होकर अपनी संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 को एतत द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं
लिखित संविधान Written Constitution – संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, चीन, जर्मनी जैसे आधुनिक लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत का संविधान भी लिखित है। यह सच है कि ब्रिटेन का कोई लिखित संविधान नहीं है, पर खण्ड जोडे जाये। इसलिए संविधान के VIII अनुसूची में भाषा के संदर्भ में प्रावधान किया गया है।
संविधान की सर्वोच्चता Supremacy of the Constitution – समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में व्याखया करके यह स्पष्ट किया है कि भारत का संविधान सर्वोपरि है। केशावानंद भारती केस में यह सभी को साफ तौर पर स्पष्ट कर दिया गया। न्यायालय ने संविधान में संशोधन की शक्ति को तो मान्यता दी पर संधीय संसद को यह भी फैसला सुनाया कि ब्रिटेन की भाति भारतीय संसद एक सर्वोच्च संसद नहीं है और इसे संविधान के दायरे के भीतर रहकर कार्य करना चाहिए।
संसदीय सर्वोच्चता और न्यायिक समीक्षा के बीच समन्वय – 26 जनवरी. 1950 को संविधान के प्रभावी होने के बाद से, इसमें कई बार संशोधन किए जा चुके हैं। जब भी जमींदारों एवं बड़े औद्योगिक घरानों के हितों पर प्रभाव पड़ता है, तो वे ऐसे मामलों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते हैं।

शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ और सज्जन सिंह बनाम राजस्थान मामले में न्यायालय ने स्वीकार किया कि संसद को संशोधन करने की असीमित शक्ति प्राप्त है। परन्तु 1967 में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती विनिश्चयों को उलट दिया और संसद और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की। 1973 में केशवानंद भारती केस में पुनः यह मामला सामने आया। इसे एक बहुत बड़ी न्यायपीठ ने सुना।

न्यायालय ने बहुमत से निर्णय लेते हुए संसद पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए और कहा कि संसद संविधान का संशोधन करके उसकी आधारभूत संरचना को नहीं बदल सकती और न तो संक्षिप्त कर सकती है, न समाप्त कर सकती है और न नष्ट कर सकती है। यहाँ तक कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 368 द्वारा संसद की संशोधन शक्ति को सीमित करे दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि भारत में न तो संसद सर्वोपरि है और न ही न्यायपालिका।

संसद में न्यायाधीशों के संबंध में तभी विचार-विमर्श किया जाएगा जब उन पर अभियोग का मामला होगा। उस समय सर्वोच्च न्यायालय को उन सभी पूर्ववर्ती और मौजूदा कानूनों के पुर्नरीक्षण का अधिकार होगा ताकि यह पता लगाया जा सके कि वे संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
मौलिक अधिकार Fundamental Rights – ब्रिटेन के नागरिकों को 1689 के ‘बिल ऑफ राइट्स’ अर्थात् अधिकारों के विधेयक द्वारा अधिकार प्रदान किए गए थे। अमेरिका में बिल ऑफ राइट्स द्वारा प्रारंभिक 10 संशोधन करके नागरिकों को अधिकार प्रदान किए गए। भारत में संविधान निर्माताओं ने भारतीय नागरिकों को अधिकार प्रदान किए। इन अधिकारों को मौलिक अधिकार माना गया है और इनके उल्लंधन को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

भारतीय संविधान के भाग-III में मौलिक रूप से सात अधिकारों का वर्णन किया गया था जिसका उल्लेख अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है। ये अधिकार है-समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकारा इनमें से 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा संपत्ति का अधिकार हटा दिया गया है और 300(A) में रख दिया गया।

ये अधिकार इस रूप में मौलिक हैं कि किसी भी सरकारी संस्था या अन्य संस्थाओं द्वारा इन अधिकारों के हनन को सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्य के उच्च न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है। ऐसे कई सकारात्मक अधिकार हैं जो भारतीयों और विदेशी नागरिकों के बीच किसी प्रकार का पक्षपात नहीं करते। जब से संविधान का अंगीकरण किया गया है, तब से अनेक बार इसमें संशोधन किए जा चुके हैं जैसे –

कि प्रारंभिक शिक्षा के अधिकार को जीवन के अधिकार में शामिल किया गया। सर्वोच्च न्यायालय और भारतीय संसव ने भी समय-समय पर विभिन्न अधिनियमों और कानूनों की व्याख्या करके नागरिक चार्टर का विस्तार किया है।

केशवानंद भारती केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन तो किया जा सकता है पर उन्हें न ही संक्षिप्त किया जा सकता है, न ही उनका उल्लंघन किया जा सकता है और न ही किसी भी परिस्थिति में समाप्त किया जा सकता है। अब मौलिक अधिकार संविधान की मूलभूत संरचना का हिस्सा बन चुके हैं।
राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत Directive Principles of State Policy – राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) को शामिल करने के मामले में संविधान के निर्माताओं पर आयरिश (आयरलैंड) गणराज्य का प्रभाव था। राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों को भारतीय संविधान के अध्याय-IV में रखा गया है। जहाँ मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतंत्र का हिस्सा हैं, वहाँ निदेशक सिद्धांतों का उद्देश्य सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में गरीब और दलित लोगों का उत्त्थान करना है।

यह सच है कि इन अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता, तो भी ये देश के शासन में मौलिक महत्त्व रखते हैं। 1980 के मिनर्वा मिल्स केस में और 2008 के अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मौलिक अधिकार और निदेशक सिद्धांत विरोधात्मक नहीं है अपितु ये एक-दूसरे के पूरक और संपूरक हैं।
मौलिक कर्त्तव्य Fundamental Duty – इस तथ्य के बावजूद कि मौलिक कर्त्तव्य मूल संविधान में शामिल नहीं था, इसके उपरांत भी इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। जिसने मौलिक कर्त्तव्यों को अध्याय IV में शामिल करने के लिए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1976 में भारतीय संबिधान के 42वें संशोधन अधिनियम के द्वारा भाग 4 (क) और अनुच्छेद 51(ए) में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को जोड़ा गया, जिसमें मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है।

इस संबंध में सरकार सोवियत संघ (USSR) के संविधान से प्रेरित धी। इन कर्त्तव्यों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता। परन्तु वे कर्त्तव्य देश के नागरिकों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि अधिकारों के साथ कर्त्तव्य भी जुड़े हैं। कुछ कानूनों के द्वारा कुछ कर्त्तव्यों को भारतीय नागरिकों के लिए अनिवार्य बनाया गया है। उदाहरण के लिए-राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय ध्वज और भारतीय संविधान के प्रति सम्मान, वन्यजीवन और वनों का संरक्षण कुछ ऐसे दायित्व हैं जिनका देश के सभी नागरिकों द्वारा वहन किया जाना जरूरी है।
स्थानीय स्वशासन Local Self Government – भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने विकेंद्रीकरण द्वारा ग्रामीण भारत को सशक्त करने का सपना देखा था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में स्थानीय स्वशासन के बारे में स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। 1992 के 73वें और 74वें संशोधन अधिनियमों द्वारा ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के लिए त्रि-स्तरीय स्थानीय शासन का प्रावधान किया गया ताकि शक्ति का बिकेंद्रीकरण हो सके और नीति-निर्माण प्रक्रिया में जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। 32 लाख प्रतिनिधियों के चुनाव और जमीनी स्तर पर जनता की सहभागिता भारत में निचले स्तर पर लोगों के सशक्तीकरण और लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने में सहायक है। यह संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा स्थानीय स्वशासन है।
संघीय गणराज्य Federal Republic – कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों की भांति भारत में भी संविधान निर्माताओं ने एक संविधान का निर्माण किया। हालाकि भारतीय संविधान कई अथों में कनाडा संघ से मिलता-जुलता है, पर इसने ऑस्ट्रेलिया और संबुक्त राज्य अमेरिका जैसे संधों से भी अनेक विशेषताएँ ग्रहण की हैं। भारत में दोहरी शासन प्रणाली है। शक्तियों का केंद्र और राज्य में विभाजन किया गया है। केंद्र और राज्यों में सामंजस्य बना रहे, इसके लिए भी सातवीं अनुसूची का प्रावधान है जिसके अंतर्गत शक्तियों को केंद्र सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची में बांटा गया है।

संविधान की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, लिखित संविधान, शक्तियों का विभाजन कुछ ऐसी संधीय विशेषताएँ भी हैं जिन्हें भारतीय संविधान द्वारा अपनाया गया है। चूँकि भारत की एक विलक्षण स्थिति और ब्रिटिश गुलामी से निकलकर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय हुआ है इसलिए संविधान निर्माताओं ने संविधान को सशक्त एकात्मक विशेषताएँ प्रदान कीं। एकल नागरिकता, एकल न्यायपालिका, भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) और भारतीय पुलिस सेवा (IPS), इन सभी के लिए परीक्षाओं का आयोजन केंद्र सरकार करती है, पर इन कार्मिकों की तैनाती राज्यों में होती है।

राज्यों में असामान्य स्थितियाँ होने पर केंद्र द्वारा राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। कांग्रेस शासन के उत्कर्ष काल में यह एक आवर्तक घटनाक्रम था और यहाँ तक कि 1977 से 1980 की ढाई वर्ष की अल्प अवधि में जनता सरकार ने नौ राज्य सरकारों को बरखास्त कर दिया था। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण तध्य यह है कि जहाँ एक ओर केंद्रीय वित्त आयोग जैसा संवैधानिक निकाय केंद्र ब राज्यों के बीच संसाधनों और कराधानों के आवंटन का कार्य देखता है जो कि कुल संसाधनों का सिर्फ 30 प्रतिशत भाग है। भारत एक ऐसा गणराज्य भी है जहाँ देश का मुखिया चुना जाता है जबकि ब्रिटेन जैसे कई देश ऐसे हैं जहाँ देश का प्रमुख वंशानुगत होता है।
कानून का शासन Rule of Law – सरल शब्दों में, “कानून के शासन” का अर्थ है कि कानून सर्वोपरि है और वह देश में किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि या प्राधिकरण पर समान रूप से लागू होता है। इस शब्द की उत्पत्ति फ्रांसीसी वाक्यांश “le principe de la legalite” से हुई है जिसका अर्थ है कि सरकार कानून द्वारा शासित होती है, मनुष्यों द्वारा नहीं। इस वाक्यांश को अलग-अलग देशों में अलग-अलग लोगों ने विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। बहुत से दार्शनिकों ने इसकी मौलिक परिभाषा प्रस्तुत करने के प्रयास किए। अरस्तू का नाम भी उनमें से एक है।

उन्होंने अपनी अभिधारणा को उचित सिद्ध करने के लिए इसे कारण के नियमों और अन्य प्राकृतिक न्याय-संबंधी कानूनों से जोड़ने का प्रवास किया। इन सब में सबसे प्रसिद्ध और स्वीकृत सिद्धांत ए.वी. डायसी द्वारा प्रतिपादित किया गया था। उनका यह सिद्धांत उनकी पुस्तक “द लॉ ऑफ द कॉन्स्टीट्यूशन” द्वारा प्रसिद्ध हुआ। उनका यह सिद्धांत था कि “सरकार कानून के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए बजाय कि मनुष्यों के” और इसके लिए उन्होंने तीन प्रमुख स्तंभों का उल्लेख किया जो इस प्रकार है
कानून की सर्वोच्चता Supremacy of Law – यह देश के कानूनी प्रभुत्व और पूर्ण सत्ता को प्रकट करता है। कानून सब पर लागू होता है. उन पर भी जो नागरिक नहीं है। डायसी का मानना था कि मनमानी शक्ति या विवेकाधीन शक्ति के विपरीत विधि पूर्ण रूप से सर्वोच्च है और प्रधान है। इसका यह अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को कानून की उचित प्रक्रिया के अलावा अलग-अलग कानूनी तरीके से पीड़ित नहीं बनया जा सकता है।
कानून के समक्ष समानता – इसका यह अर्थ है कि कानून का न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से प्रशासन किया जाना चाहिए। विधि के समक्ष सभी बराबर हैं और किसी का भी दर्जा ऊपर या नीचे नहीं है। उनका कहना है कि “सभी नागरिकों की तरह प्रत्येक कार्मिक, चाहे वह प्रधानमंत्री हो, एक सिपाही या एक कर संग्रहकर्त्ता, सभी प्रत्येक कार्य के लिए बिना किसी कानूनी औचित्य के समान रूप से उत्तरदायी हैं।“ भारतीय संविधान में अनुच्छेद (14-18) के अंतर्गत समानता के अधिकार का वर्णन किया गया है। इसमें ये बातें शामिल हैं-कानून के समक्ष समानता अथवा कानून का समान संरक्षणो; धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्म- स्थान के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव की मनाही; रोजगार के संबंध में समान अवसर; अस्पृश्यता का अंत और उपाधियों की समाप्ति।
कानूनी भावना की प्रबलता – डायसी का मानना था कि पूर्ववर्त्ती द सिद्धांतों को लागू करना पर्याप्त नहीं है। इस प्राधिकरण और कानूनों को बनाए रखने के लिए एक सुचारु तेंत्र की आवश्यकता है। इस प्राधिकार के लिए उन्होंने न्यायालयों पर संदेह व्यक्त किया। उन्होंने एक आंशिक व स्वायत्त न्यायतंत्र की बात की जो कानून के शासन को लागू करने का एक महत्त्वपूर्ण आयाम होगा।
शक्तियों का पृथक्करण Separation of Powers – भारत में शक्तियों के विभाजन की अगह कार्यों के विभाजन पर अमल किया गया है। भारत में, अमेरिका की तरह शक्तियों के पृधक्करण का दृदता से पालन नहीं किया गया। न्यायपालिका को विधानमण्डल द्वारा पारित किसी भी अवैध कानून को उलटने का अधिकार प्राप्त है। नियंत्रण और संतुलन की यह प्रणाली सराहनीय है। व्यावहारिक कारणों से आज अधिकांश संवैधानिक प्रणालियाँ विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों का जटिल परंपरागत विभाजन करने योग्य नहीं हैं। भारत की मौजूदा स्थिति, प्रत्येक अंग के बीच संबंध और संवैधानिक प्रावधान- ये सभी नीचे दिए गए भागों में शामिल किए जाएंगे। इनके संबंधों की ओर बढ़ने से पहले आइए सरकार के प्रत्येक अंग की कार्यप्रणाली पर एक नजर डालें।
उद्देश्य – शक्तियों के विभाजन का आशय किसी भी एक व्यक्ति या लोगों के समूह द्वारा अधिकारों के दुरुषयोग पर रोक लगाना है। यह प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्नता की गारंटी देता है, राज्य की दमनकारी नीति से सभाज की रक्षा करता है और राज्य के उचित अंगों को कार्यभार सौंप कर उनके संबंधित कर्त्तव्यों के सफल संपादन को सुनिश्चित करता है।
संकल्पना – अरस्तू ने सबसे पहले चौथी शताब्दी ईसा पूर्व अपने लेखन कार्य में इस विचार की व्याख्या प्रस्तुत की। इसके अनुसार सरकार तीन शाखाओं में विभक्त है- सामान्य सभा, निर्वाचित अधिकारी और न्यायपालिका। प्राचीन रोमन गणराज्य में भी समान विचार अपनाया गया। 18वीं सदी में अपनी पुस्तक ‘द स्पिरिट ऑफ लॉज’ में फ्रांसीसी दार्शनिक मांटेस्क्यू ने इस विचार का एक अत्यधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया। उनकी कृति अंग्रेजी व्यवस्था के अनुभव पर आधारित थी जिसमें सरकार की तीन शाखा के बीच अधिक सूक्ष्मता से भेद स्पष्ट किया गया था। आगे चलकर जाँन लॉक ने इस संकल्पना के विकास को और उन्नत बनाया।
अर्थ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका वे तीन शाखाएँ हैं जो मिलकर सरकारी व्यवस्था का निर्माण करते हैं। इस तच्य को जानते हुए कि विभिन्न प्रतिपादकों ने अलग-अलग परिभाषाएँ प्रस्तुत की है, हम इस संकल्पना की तीन विशेष विशेषताओं पर विचार कर सकते हैं। एक अंग या शाखा में एक व्यक्ति की जो भूमिका होती है, वह अन्य अंग में नहीं हो सकती जिसका यह अर्थ है कि प्रत्येक अंग में अपनी भूमिका का निर्वाह करने वाले लोग भी पृधक होने चाहिए।

एक अंग की कार्यप्रणाली का दूसरे अंगों के कार्यों पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। एक अंग द्वारा दूसरे अंगों के कर्त्तव्य निभाए जाना अनुचित है। उन्हें केवल अपने अनिवार्य कार्यों तक ही सीमित रहना चाहिए। भारत जैसे जटिल देश में इन विस्तृत श्रेणियों को इस प्रकार सीमांकित किया गया है कि एक शाखा का दूसरी शाखा के साथ मतभेद और अतिक्रमण अति सहज हैं।
सिद्धांत का अर्थ – राज्य के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों के विभाजन की आवश्यकता क्यों है? एक बुरे प्रशासन, भ्रष्टाचार, भाई- भतीजावाद और शक्ति के दुरुपयोग की संभावनाएँ उस स्थिति में हमेशा बनी रहती हैं जब शक्ति का केंद्रीकरण एक स्थान पर या एक प्राधिकरण के हाथों में हो। इस सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए लोकतंत्र को अधिनायकवाद से संरक्षण प्रदान किया गया है। नागरिकों को मनमाने शासन से सुरक्षा प्रदान की गई है।
महत्व – यह अधिनायकबाद से सुरक्षा प्रदान करता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संरक्षण देता है और प्रभावी सरकार के विकास में सहायक है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा गया है। इस बात को सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी मनमाना या अवैध कानून विधायिका द्वारा पारित नहीं किया जाएगा।
भारतीय संविधान के संदर्भ में शक्तियों का पृथक्करण-

• भारतीय संविधान की मौलिक संरचना में शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा शामिल है। हालाँकि दस्तावेज में लिखित रूप से इसका साफ वर्णन नहीं है, यह एक संकेत मात्र है।

• इस संकल्पना को विधायिका द्वारा पारित किसी कानून द्वारा भंग नहीं किया जा सकता।

• संविधान में तीनों अंगों की भूमिका का विशेष प्रसंग दिया गया है।

• आइए संविधान के ऐसे कुछ अनुच्छेदों का निरीक्षण करते हैं जिनमें शक्तियों के पृथक्करण की वकालत की गई है।

• अनुच्छेद 50 : इस प्रावधान के अनुसार कार्यपालिका और न्यायपालिका को पृक् होना चाहिए। इसका वर्णन राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में मिलता है, इसलिए यह बाध्यकारी नहीं हैं।

• राष्ट्र के एक कार्यपालक के रूप में राष्ट्रपति को कतिपय परिस्थितियों में विधायी शक्ति (अध्यादेश जारी करने) का अधिकार प्राप्त है।

• अनुच्छेद 121 और 211 में विधायिका को सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कृत्यों पर विचार-विमर्श करने का निषेध है। केवल महाभियोग की स्थिति में उन्हें यह शक्ति प्राप्त है।

• अनुच्छेद 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति और गवर्नरों को कानूनी कार्यवाही से मुक्त रखा गया है।

• कुछ विशेष प्रावधानों के द्वारा, विभिन्न अंग नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था के जरिए एक-दूसरे पर नजर रख सकते हैं।

• न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका शाखाओं द्वारा लिए गए निर्णयों की न्यायिक जाँच का अधिकार प्राप्त है।

• अनुच्छेद 13 के अनुसार, अगर कोई कानून असंवैधानिक है, एकपक्षीय है या मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो न्यायपालिका को उसे अवैध घोषित करने का अधिकार प्राप्त है।

• न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बावजूद, कार्यपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकती है।

• संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करते हुए भी विधायिका निर्णय का आधार बदल सकती है।

• नियंत्रण व संतुलन की व्यबस्था इस बात को सुनिश्चित करती है कि कोई भी एक अंग सर्वोच्च नहीं है।

• संविधान यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक अंग की विवेकाधीन शक्ति लोकतंत्र की सीमाओं के भीतर रहे।
संप्रभुता – भारत इस अर्थ में संप्रभु है कि इसकी सत्ता जनता में निहित है और वे सर्वोपरि हैं। यद्यपि संविधान सभा का गठन किसी प्रत्यक्ष मतदान द्वारा नहीं कराया गया धा, पर 1951-52 के पहले आम चुनावों में जनता ने संविधान का सम्मान करते हुए मतदान किया। तधापि, प्रत्येक पाँच वर्षों में, जनता लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए मतदान में भाग लेती हैं। राजनीतिक दल मतवाताओं को लुभाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। यदि सरकार को विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं होता, तो सरकार इस्तीफा दे देती है।

नए चुनावों के लिए मध्यावधि चुनाव घोषित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, भारत का संविधान लोकतांत्रिक है क्योंकि यह जनता द्वारा, जनता के लिए बनाई गई सरकार है। प्रस्तावनो के प्रारंभिक शब्दों में उल्लेख है, “हम, भारत के लोग” जिससे यह स्पष्ट है कि जनता सर्वोच्च है।

यह प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट है कि संविधान को शक्ति इसकी जनता से प्राप्त है। प्रस्तावना के आखिर में यह वर्णित है कि इसका अंगीकरण 26 नवंबर, 1949 की तारीख को किया गथा था। इस दिन संविधान पूरा हुआ थरा और इसे अपनाया गया। भारत एक गणतंत्र भी है जहाँ देश का मुखिया चुना जाता है जबकि ब्रिटेन जैसे कई देशों में देश का प्रमुख आनुवांशिक होता है।
समाजवाद – इस शब्द को 1976 के 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा शामिल किया गया था। परंतु यह शब्दावली अस्पष्ट और विवादास्पद है। समाजवाद को सामान्य तौर पर देखा जाए तो इसका अर्थ है एक ऐसा सिद्धांत या नीति जो निजी स्वामित्व का समर्थन नहीं करती। अपितु यह समग्र रूप से समुदाय द्वारा उत्पादन के साधन, पूँजी, भूमि अथवा संपत्ति की वकालत करती है। 1991 की नई आर्थिक नीति द्वारा, भारत ने वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण को अपनाया।
लोकतंत्र – प्रस्तावना में भारत को एक लोकतांत्रिक राज्य घोषित किया गया है। लोकतंत्र का सामान्य अर्थ है जनता की व जनता द्वारा बनाई गई सरकार। अन्य शब्दों में, जनता की राजनीतिक सत्ता में भागीदारी है। वे अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी इस भागीदारी का कार्यान्वयन करते हैं।

भारतीय संविधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और राज्य सभा के सदस्यों के चुनाव में एकल संक्रमणीय मत प्रणाली को अपनया गया है। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में सरल बहुमत प्रणाली को अपनाया गया है। इसके लिए, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने हेतु एक स्वतंत्र चुनाव आयोग का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार, 1952 से लेकर आज तक चुनावों के माध्यम से भारत में लोकतंत्र का सफलतापूर्वक संचालन किया जा रहा है।
धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव – ब्रिटिश-भारत का धर्म के आधार पर भारत और पाकिस्तान में विभाजन हो गया था। पाकिस्तान ने स्वयं को एक इस्लामी राज्य घोषित कर दिया परन्तु भारत के बड़े नेताओं की इच्छा थी कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बना रहे जहाँ हिन्दू. इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, बीद्ध, जैनी, पारसी सभी धर्मों के लोग रह सके। मूल संविधान में अनुच्छेद 25 से लेकर अनुच्छेद 28 तक संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप झलकता है।

भारत सभी धर्मों के लोगों को अपनी पसंद के धर्म का पालन, प्रचार और आस्था रखने की स्वतंत्रता देता है। प्रारंभ में, भारत ने प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द का उल्लेख नहीं किया था। 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। भारत सभी लोगों को अपने पसंद के पर्वों को मानाने की अनुमति देता है। केंद्र व राज्य सरकारें धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेंगी। धर्म के आधार पर पुरस्कार, उपाधि या खिताब प्रदान नहीं किए जाएंगे।

यद्दपि धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना व्यापक रूप से एक पश्चिमी धारणा है, पर भारत में धर्म को एक वृहत संदर्भ में देखा जाता है। वैदिक काल से लेकर अब तक धर्म को केवल मानवीय गुणों, नैतिक गुणों और नैतिक मूल्यों से जोड़कर देखा गया है। भारतीय सभ्यता और संस्कृत में वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा मिलती है। भारत में, सभी धर्मों के साथ समान व्यबहार की भावनाएँ जुड़ी हुई हैं।

धर्म की स्वतंत्रता को भी भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार के रूप में वर्णित किया गया है। प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार, भारत में धर्मनिरपेक्षता की जगह सभी धर्मों की समानता का भाव निहित है। जिसे सर्व धर्म समभाव कहा जाता है। भारतीय समाज में सर्व धर्म समभाव का मूल्य सर्वदा दिखाई देता है।