पेंशन के प्रमुख विकास की रूपरेखा बीजिए।
उत्तर –
(A) फैशन अपेक्षाकृत एक नया विषय है, क्योंकि प्राचीन और मध्यकाल के दौरान शैलियाँ पूरी-पूरी शताब्दी तक भी परिवर्तित नहीं होती थी। फिर नवजागरण काल में पश्चिमी सभ्यता ने विभिन्न संस्कृतियों, रीजि-रिवाजों और परिधानों की खोज करके फैशन परिवर्तन को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही नए-नए किस्म के कपड़ों की उपलब्धता और नवीन विचारों के अदान-प्रदान के कारण लोग और ज्यादा नयी वस्तुओं के लिए लालायित होने लगे।
(B) अंतर्राष्ट्रीय फैशन जगत में फ्रांस का प्रभुत्व 18वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रारंभ हुआ। औद्योगिक क्रांति से पूर्व लोग दो प्रमुख वर्गों में बंटे हुए थे- अमीर और गरीब। इनमें से केवल अमीर लोग ही फैशनयुक्त कपड़े खरीदने में समर्थ थे। फिर 18वीं शताब्दी के अंत तक सम्राट लुईस चौदहवें के कोर्ट के सदस्य अपनी रुचि को प्राथमिकता देते हुए धीरे-धीरे दिशा-दाता बन गए और पेरिस को यूरोप की फैशन राजधानी बना दिया।
(C) इसके बाद औद्योगिक क्रांति ने वस्त्र निर्माण और परिधान उत्पादन की प्रौद्योगिक उन्नति की शुरूआत की। विकास के कारण कम समय में अधिक वस्त्रों का निर्माण होने लगा। इसी काल में कातने वाला यंत्र और मशीन करपों (spinning jenny and power looms) का आविष्कार हुआ। तेजी से बढ़ते व्यापार और उद्योग ने मध्य वर्ग को जन्म दिया, जिसके पास जीवन की विलासिताओं और अच्छे कपड़ो को खरीदने के लिए पर्याप्त धन था।
(D) सिलाई मशीन के आविष्कार ने भी हस्तशिल्प को एक उद्योग के रूप में बदल दिया। इसने फैशन को जन-जन तक पहुँचाया और फैशन को प्रत्येक वर्ग के लिए सुलभ बना दिया।
(E) वर्ष 1849 में ‘लेवी स्ट्रॉस’ (Levi Strauss) ने टेंटो और मालडिब्बों के कवरों के लिए बने कपड़ों का उपयोग करके ज्यादा चलने बाली पैटे बनाई, जिनमें औजार रखने के लिए जेबें लगाई गई। यह उत्पाद बहुत अधिक प्रचलित हुआ और इसे ‘डेनिम्स’ (Denims) के नाम से जाना जाने लगा।
(F) महिलाओं ने 1880 के दशक से स्कर्ट/घाघरा और ब्लाउज पहनने शुरू किए। यह महिलाओं के लिए पहनने को तैयार कपड़ों के निर्माण की ओर एक क्रांतिकारी कदम था। इन वस्त्रों की लंबाई और कमर आसानी से पहनने वाले के शारीरिक माप के अनुकूल ठीक कर लिए जाते थे। इससे महिलाओं के परिधानों में विविधता आनी शुरू हो गई तथा नए-नए माप एवं आकार के वस्त्रों प्रचलन शुरू हो गया।
(G) 19वीं शताब्दी में मेलों और बाजारों के माध्यम से फैशन को जनसाधारण की जेब के अनुकूल बनाकर उपलब्ध कराया जाने लगा। एक जगह से दूसरी जगह फेरी लगाने वाले व्यापारी इन बाजारों में कपड़े लाते थे और खरीदने वाले और बेचने वाले, दोनों अकसा मोलभाव कर क्रय-विक्रय करते थे। फिर धीरे-धीरे शहरों में जनसंख्या बढ़ने के कारण स्थाई दुकानें स्थापित की जाने लगी। उसक बाद विविध प्रकार के कपड़ों की बढ़ती माँग के अनुरूप शहरों में कई खुदरा दुकानें खुलने लगी।
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