NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 9 पोषण, स्वास्थ्य एवं स्वथ्यता (Nutrition, Health and Well-being) Notes In Hindi

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 9 पोषण, स्वास्थ्य एवं स्वथ्यता (Nutrition, Health and Well-being)

TextbookNCERT
class11th
SubjectHome Science
Chapter9th
Chapter Nameपोषण, स्वास्थ्य एवं स्वथ्यता
CategoryClass 11th Home Science Notes in hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt
NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 9 पोषण, स्वास्थ्य एवं स्वथ्यता (Nutrition, Health and Well-being) Notes In Hindi विकास की विभिन्न अवस्थाओं में बच्चे की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ, बच्चों के लिए संतुलित भोजन की योजना बनाना, बच्चों की खान-पान संबंधी आदतें, बच्चों के स्वास्थ्य एवं पोषण से संबंधित महत्वपूर्ण समस्याएँ तथा रोग प्रतिरक्षण कार्यक्रम।

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 9 पोषण, स्वास्थ्य एवं स्वथ्यता (Nutrition, Health and Well-being) Notes In Hindi

Chapter – 9

पोषण, स्वास्थ्य एवं स्वथ्यता

Notes

भूमिका (Introduction)

जैसे-जैसे बच्चे की वृद्धि एवं विकास होता जाता हैं उसकी पोषण संबंधी आवश्यकताएँ भी बढ़ती जाती है। बच्चों की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ मुख्य रूप से उनकी शारीरिक वृद्धि दर पर निर्भर करती हैं। बच्चों में शारीरिक एवं मानसिक विकास काफी तीव्र गति से होता हैं, जिसमें पर्याप्त पोषण बच्चों की पूर्ण क्षमताओं के साथ वृद्धि को सुनिश्चित करता हैं। यदि इस अवस्था में किसी भी पोषक तत्व/तत्वों की कमी हो जाएं तो बच्चा कई प्रकार की बीमारियों के साथ-साथ आजीवन अपंगता से भी ग्रस्त हो सकता है। अतः हम सभी को बच्चों के भोजन में सभी खाद्य वर्गां का प्रयोग करते हुए उसे संतुलित बनाने की कला का ज्ञान होना आवश्यक है।

आमतौर पर माना जाता है कि बच्चे की सामान्य रूप से लंबाई एवं शारीरिक भार में होने वाली बढ़ोतरी उसके अच्छे पोषण स्तर को दर्शाती है, जबकि वास्तव में पोषण बच्चे के स्वास्थ्य के सभी आयामों को बेहतर बनाता है। पर्याप्त पोषण मुख्य रूप से निम्नलिखित में योगदान देता है:-

(i) शरीर के सभी अंगों के कार्य एवं प्रणाली को बेहतर बनाता है।
(ii) रोगों से लड़ने तथा स्वास्थ्य सुधार के लिए शरीर की क्षमता में वृद्धि करता हैं।
(iii) सुखद एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के विकास में सहायक होता हैं।
(iv) संज्ञानात्मक विकास में सहायक होता हैं।
(v) शरीर के ऊर्जा-स्तर को बढ़ता हैं।
शैशवावस्था (0-12 महीने) के दौरान स्वास्थ्य, पोषण एवं स्वस्थ्यता [(Nutrition, Health and Well-being During Infancy (birth-12 months)]

जीवन के पहले साल को ‘शैशवावस्था’ कहा जाता है। इस अवस्था के दौरान शिशु का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता हैं। इस अवस्था में-

(i) शारीरिक भार : जन्म के समय शिशु का भार लगभग 2½ से 3 किलोग्राम तक होता है। छ: मास का होते-होते शिशु का वजन दोगुना हो जाता है और एक वर्ष का होने पर लगभग तिगुना हो जाता है।
(ii) लम्बाई: एक वर्ष तक के शिशु की लंबाई अपने जन्म के समय की लंबाई (लगभग 50 सेमी.) से लगभग 1½ गुना तक बढ़ जाती है।
(iii) सिर की परिधि एवं सीने की परिधि दोनों में वृद्धि होती है।
(iv) माँसपेशियों का आकार बढ़ने के साथ-साथ शिशु के पाचनतंत्र की क्षमता में भी सुधार होता है।
शिशुओं की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Nutritional Requirements of Infants)

शिशुओं की पोषक तत्वों की आवश्यकता उनकी आयु पर निर्भर करती है। इसलिए शिशुओं के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता को दो आयु वर्गों में निम्न में विभाजित किया गया है-

(1) 0 – 6 माह : पहले 6 माह में तीव्र वृद्धि दर होने के कारण पोषक तत्वों की आवश्यकता अधिक होती है।
(2) 6 – 12 माह : इस अवस्था में वृद्धि दर में कमी आती है।

ऊर्जा : तीव्र वृद्धि की अवस्था होने के कारण शिशुओं की ऊर्जा की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। शिशु को एक कठिन श्रम करने वाले वयस्क पुरुष की अपेक्षा प्रति
किग्रा. शरीर भार के अनुसार दोगुनी कैलोरी की आवश्यकता होती है।

प्रोटीन : इस अवस्था में शरीर के उत्तकों का विकास तीव्र गति से होने के कारण प्रोटीन की आवश्यकता बहुत अधिक होती है।

खनिज लवण : हड्डियों एवं दांतों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम तथा फॉस्फोरस अतिआवश्यक खनिज लवण है। शिशु के समुचित बौद्धिक एवं मानसिक विकास के लिए आयोडीन अतिआवश्यक है। रक्त में हीमोग्लोबिन के निर्माण के लिए लौह तत्व आवश्यकता होती है।

विटामिन : शैशवावस्था के दौरान वृद्धि एवं विकास के लिए तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता के विकास के लिए विटामिन की आवश्यकत होती है। इसलिए विटामिन को सुरक्षात्मक तत्व (protective element) भी कहते है।

जल : शैशवावस्था के दौरान शिशु की जल संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति माँ के दूध से ही पूरी हो जाती है।
शिशुओं की आहार संबंधी आवश्यकताएँ (Dietary Requirements of Infants)

जन्म के बाद पहले छ: माह तक शिशु की सभी पौष्टिक आवश्यकताओं की पूर्ति माँ के दूध से ही हो जाती है। उसके बाद एक वर्ष की आयु तक शिशु की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ माँ के दूध के साथ-साथ उनको दिए जाने वाले पूरक भोजन से पूरी हो जाती हैं। 4-6 माह तक के शिशु की सभी पोषक आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं।

एक सुपोषित माँ के 850 मि.ली. दूध वाली माँ को पौष्टिक खुराक दी जाएं तो शिशु भी अच्छी तरह बढ़ता और फलता-फूलता है। इसलिए माँ को प्रोटीन, कैल्सियम, तथा लौह तत्व युक्त भोजन करना चाहिए तथा कुपोषण से बचने के लिए उसे पर्याप्त मात्रा में दूध, सूप, फलों का जूस तथा जल जैसे तरल पदार्थ देने चाहिए।
स्तनपान (Breastfeeding)

माँ का दूध नवजात शिशु के लिए प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है। माँ का दूध शिशु की आवश्यकताओं के अनुरूप सभी पोषक तत्वों से युक्त होता है तथा शिशु के शरीर में आसानी से अवशोषित हो जाता हैं। शिशु के लिए माँ के दूध के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता हैं कि- विश्व स्वास्थ्य संगठन भी शिशु को कम से कम 6 माह तक विशेष रूप से स्तनपान कराने की सिफ़ारिश करता है। स्तनपान के दौरान शिशु को अलग से पानी की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। बच्चे के जन्म के 24 से 48 घण्टों के अन्दर माता का दूध स्रावित होने लगता है। आरम्भ के दो-तीन दिन तक स्तनों में से साफ हल्के पीले रंग का पदार्थ निकलता है जिसे कोलस्ट्रम (colostrum) कहते हैं।

कई माताएँ प्राचीन प्रथाओं या अज्ञानतावश इसे बेकार समझ कर यह प्रथम दूध बच्चे को नहीं पिलाती। परन्तु इसमें दूध की अपेक्षा अधिक प्रोटीन और विटामिन ए की मात्रा होती है। कोलस्ट्रम में ‘जीवन रक्षक गुण’ पाए जाते हैं जो कई महीनों तक बच्चे की संक्रमण से रक्षा करते हैं। यह बच्चे में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में सहायक होता है। कोलस्ट्रम शिशु के पाचक रसों के निर्माण में सहायक होता है तथा उसमें कुछ वृद्धिवर्धक पदार्थ भी पाए जाते हैं। अतः यह आवश्यक है कि शिशु को पहले दिन से ही स्तनपान कराना आरम्भ कर दिया जाए। माता का दूध आरम्भ के चार महीने तक शिशु की सभी पौष्टिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ होता है।
स्तनपान के लाभ (Benefits of Breast Feeding)

(i) माँ का दूध शिशुओं की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पोषण की दृष्टि से अनुकूल होता है।
(ii) माँ के दूध में प्रतिरक्षी तत्व मौजूद होते हैं जो शिशुओं को विभिन्न प्रकार से संक्रमणों से बचाते हैं।
(iii) इसमें शिशुओं की वृद्धि के लिए अनिवार्य पोषक तत्व होते हैं।
(iv) माँ का दूध शिशु के पाचन तंत्र के लिए उपयुक्त होता है। दूध में उपस्थित लैक्टोएल्ब्यूमिन (lactoalbumin) प्रोटीन आसानी से पच जाता है।
(v) माता के दूध का तापमान शिशु के लिए अनुकूल होता है।
(vi) माता का दूध सुरक्षित, मिलावट रहित तथा आसानी से उपलब्ध होने वाला आहार है जो शिशु को पोषण और भावनात्मक सुरक्षा देने के साथ-साथ संक्रमणों तथा भोजन से होने वाली एलर्जी से सुरक्षा करता है।
(vii) स्तनपान माँ को स्तन एवं अंडाशय के कैंसर से सुरक्षा प्रदान करता है तथा माँ की हड्डियों को कमज़ोर होने से बचाता है।
(viii) यह माँ तथा शिशु के मध्य स्वस्थ, सुखद भावात्मक संबंध के लिए बहुत ही सहायक होता है।
(ix) माता का दूध स्वच्छ एवं जीवाणुरहित होता हैं, जिससे शिशु में किसी भी प्रकार का संक्रमण होने का भय नहीं रहता हैं। इसके अतिरिक्त माता के दूध में रोगाणु प्रवेश नहीं कर सकते हैं क्योंकि शिशु इसे स्तनों से सीधा ग्रहण कर लेता हैं।
(x) माता का दूध शिशुओं को संक्रमणों एवं भोजन से होने वाली एलर्जी से बचाता है।
(xi) आर्थिक दृष्टि से भी माता का दूध लाभप्रद होता हैं क्योंकि चाहे माता कितनी भी गरीब हो, वह अपने शिशु का पोषण कर सकती हैं और उसे अतिरिक्त धन व्यय नहीं करना पड़ता हैं।
निम्न परिस्थितियों में शिशु को माँ के दूध की अपेक्षा ऊपर का दूध देना चाहिए-

(i) यदि माँ किसी ऐसे रोग से पीड़ित हो, जिसका शिशु पर कुप्रभाव पड़ सकता हो, जैसे- तपेदिक, हृदय संबंधी रोग, रक्तहीनता, किसी प्रकार का मानसिक रोग आदि ।
(i) यदि शिशु किसी शारीरिक विकार जैसे तलुआ, होंठ आदि के कारण माता का दूध नहीं पी सकता हो ।
यदि माँ पुनः गर्भवती हो जाए।
(iii) यदि माँ किसी ऐसी दवा का सेवन कर रही हों, जिसका उसके दूध पर प्रभाव पड़ता हो।
(iv) वैसे तो भूख लगाने पर शिशु द्वारा रोने को ही स्तनपान के लिए उत्तम समय माना जाता हैं, फिर भी एक माह का हो जाने पर शिशु के स्तनपान के समय अंतरालों को नियमित करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
जन्म के समय कम वजन वाले शिशुओं का आहार (Feeding the Low Birth Weight Infant)

जन्म के समय 2.5 कि.ग्रा. से कम वजन वाले शिशु को जन्म के समय कम वजन वाला शिशु (low birth weight infant) माना जाता है। ऐसे शिशुओं को निम्न समस्याओं का सामना करना पड़ सकता हैं-

• चूसने एवं निगलने का पर्याप्त सामर्थ्य न होने के कारण वह पर्याप्त मात्रा में दूध ग्रहण नहीं कर पाते
• ऐसे शिशुओं का पेट एवं आंत का आकार छोटा होने के कारण उनकी अवशोषण क्षमता काफी कम होती है।
• ऐसे शिशुओं की ऊर्जा/कैलोरी संबंधी आवश्यकता अधिक होती है।

जन्म के समय कम वजन वाले शिशुओं के लिए भी माँ का दूध ही सर्वोत्तम होता हैं क्योंकि माँ के दूध से सभी आवश्यक एमीनो अम्ल, कैलोरी, वसा तथा सोडियम के तत्व मौजूद होते हैं। इससे उनकी सभी पोषण संबंधी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त माँ के दूध का रोगाण निरोधी गुण (anti bacterial property) उन्हें विभिन्न प्रकार के संक्रमणों से भी बचाता है। यदि किसी भी कारण से माँ का दूध उपलब्ध न हों, पर्याप्त न पड़ रहा हो या फिर शिशु का वजन संतोषजनक रूप से न बढ़ रहा हो तो ऐसी स्थिति में शिशु को माँ के दूध के साथ-साथ कुछ अतिरिक्त खाद्य पदार्थ दिये जाने चाहिए।
पूरक आहार (Supplementary/Complementary Foods)

दूध के अतिरिक्त जो खाद्य पदार्थ शिशु को उसकी पौष्टिक आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए दिए जाते हैं, पूरक आहार कहलाते हैं। तथा शिशु को पूरक आहार देने की प्रक्रिया को ‘स्तन्यमोचन’ कहा जाता है। इसमें कोई दो मत नहीं की माँ का दूध शिशु के लिए अत्यंत गुणकारी होता है, परंतु शिशु की आयु बढ़ने के साथ केवल माँ का दूध ही शिशु की पौष्टिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता।

जैसे कि- 6 माह तक शिशु को लौह लवण (iron) की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि उसके शरीर में पर्याप्त मात्रा में लौह लवण उपस्थित रहता है। परंतु उम्र बढ़ने के साथ-साथ लौह लवण की कमी होती जाती है। ऐसी स्थिति में शिशु को दूध के अतिरिक्त ऊपरी आहार (पूरक आहार) द्वारा लौह लवण, आयोडीन एवं आवश्यक विटामिनों की पूर्ति की जाती हैं।

शिशु को पूरक आहार देने की शुरूआत आमतौर पर 6 माह की आयु से कि जा सकती हैं। इस प्रक्रिया को क्रमानुसार तथा नियमानुसार बच्चे के आहार में शामिल करना आवश्यक है अर्थात् धीरे-धीरे माता के दूध देने के समय या अवधि में परिवर्तन लाकर शिशु को तीन-चार महीने की आयु से तरल, अर्द्ध तरल या कोमल ठोस आहार देना आरम्भ कर दिया जाना चाहिए। ऐसा न करने से शिशु कुपोषण का शिकार हो सकता है। शिशु के आहार में अन्य खाद्य पदार्थों की मात्रा बहुत धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिए।
पूरक आहार के प्रकार (Types of Complementary/Supplementary Foods)

शिशुओं को दिए जाने वाले पूरक आहार को निम्न वर्गों में बांटा गया है-

1. तरल पूरक आहार (Liquid Supplementary Foods) : शिशुओं को तरल पूरक आहार देने की शुरूआत आमतौर पर 4 से 6 माह की आयु के दौरान की जाती हैं। तरल पूरक आहार निम्न प्रकार के हो सकते हैं-

• शुरू-शुरू में 3:1 के अनुपात में उबले पानी के साथ मिला दूध और फिर कुछ सप्ताह बाद बिना पानी वाला दूध दिया जा सकता है।
• संतरे, मौसमी जैसे रसीलें फलों का रस, 5 मि.ली. से शुरू करते हुए एक वर्ष तक 85 मि.ली. तक धीरे-धीरे बढ़ाते हैं।
• सूप, सब्जी, दाल, छना हुआ सूप। लगभग एक वर्ष के बाद नमक और प्याज के साथ बिना छना सूप।

2. मसले हुए अर्ध ठोस पूरक आहार (Semi-liquid Supplementary Foods) : शिशुओं को अर्ध ठोस पूरक आहार देने की शुरूआत 6 से 8 माह की आयु के दौरान की जाती हैं। शिशुओं को दिये जाने वाले अर्ध ठोस पूरक आहार निम्न प्रकार के हो सकते हैं-

• 6-8 मास की आयु से शिशुओं को अनाज, स्टार्च युक्त सब्जियाँ, जैसे कि- आलू अच्छी तरह से पकाकर, मसलकर दी जा सकती हैं। शुरुआत में शिशु को बहुत कम मात्रा में पूरक आहार देना चाहिए और फिर आयु के अनुरूप धीरे-धीरे उसकी मात्रा बढ़ाते जाना चाहिए।
• उबले अंडे का पीला भाग, अच्छी तरह पकी हुई दालें, मसला हुआ केला आदि भी दिये जा सकते हैं।
• अच्छी तरह पकाई गई और मसली हुई मछली एवं मांस, शिशु के एक वर्ष के पूरा होने पर शुरू किया जा सकता हैं।

3. ठोस पूरक आहार (Solid Supplementary Foods) : शिशुओं को ठोस पूरक आहार देने की शुरूआत 9 से 11 माह की आयु के दौरान की जाती हैं। शिशुओं को दिये जाने वाले ठोस पूरक आहार निम्न प्रकार के हो सकते हैं-

• जब शिशु के दाँत निकलने लगते हैं तो उसे कटे हुए ठोस खाद्य पदार्थ, जैसे कि- गाजर, खीरा, ककड़ी का टुकड़ा दिया जा सकता है।
• पके हुए चावल, रोटी का टुकड़ा, टोस्ट, बिस्कुट आदि दिए जा सकते हैं।
• दाल, अनाज, टुकड़ा किया गया मांस जिसमें अनेक चीज मिलाकर पकाई गई हो।
पूरक आहार का महत्व (Importance of Complementary Foods) : पूरक आहार शिशु की ऊर्जा तथा पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा, प्रोटीन तथा पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं। दूध के साथ-साथ पूरक आहार देने से शिशु की आहार एवं पोषण संबंधी सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता हैं।
पूरक आहार के लिए दिशा-निर्देश (Guidelines for Complementary Feeding)

• शिशुओं की पोज़ण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए पूरक भोजन कैलोरी से भरपूर होना चाहिए तथा उनसे प्रोटीन के रूप में कम-से-कम 10 प्रतिशत ऊर्जा प्राप्त होनी चाहिए।
• शिशु को एक बार में एक ही खाद्य-पदार्थ दें।
• पूरक भोजन की प्रक्रिया में दूध पिलाने की बोतलों या अन्य बर्तनों का इस्तेमाल करते समय अत्यधिक साफ-सफाई तथा स्वच्छता का ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि बच्चे को संक्रमण से बचाया जा सके।
• कोई नया खाद्य-पदार्थ देना हो तो कम मात्रा में दें, जैसे- एक चम्मच या उससे कम।
• ठोस आहार बहुत पतला होना चाहिए जिससे कि शिशु को उसे निगलने में आसानी हो।
• शिशु को भोजन खाने के लिए बाध्य न करें जब वह रोये तभी दें अन्यथा न दें।
• शिशु का आहार कम नमक का तथा बिना मिर्च-मसाले का होना चाहिए।
• शिशु के दांत निकलने पर उसे पतले-पतले टुकड़ों में कटे फल एवं सब्जियाँ देनी चाहिए।
• यदि बच्चा भोजन पसंद नहीं करता है तो उसे खाने के लिए बाध्य न करें। किसी और चीज़ को खिलाने की कोशिश करें तथा बाद में उसे वही भोजन पुनः देने का प्रयास करें।
• व्यक्तिगत नापसंद को दिखाए बिना सभी प्रकार के भोजन को खाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
• नये भोजन को स्वीकार्य बनाने के लिए भोजन में विविधता आवश्यक है।
प्रतिरक्षण (Immunization)

‘एंटीबॉडिज’ शरीर द्वारा निर्मित वह प्रोटीन होता है जो विभिन्न संक्रामक रोगों से लड़ने में सहायता प्रदान करता है। तथा “जीवन की किसी भी अवस्था के दौरान किसी संक्रामक रोग से बचाव के लिए दवाई या टीकाकरण के माध्यम से शरीर को उपलब्ध कराए जाने वाली एंटीबॉडिज को प्रतिरक्षण (Immunization) कहते है।”

हर नवजात शिशु जन्म के समय से ही कुछ बीमारियों से लड़ने के लिए एंटीबॉडिज पाई जाती है। यह एंटीबॉडिज शिशु को उसकी माँ के गर्भ में ही प्लेसेन्टा के माध्यम से प्राप्त होती है। जन्म के बाद माँ के दूध से भी बच्चे को कई एंटीबॉडिज प्राप्त होती है, हालांकि दोनों माध्यमों से प्राप्त होने वाली एंटीबॉडिज कुछ समय तक तथा कुछ ही रोगों से लड़ने में कारगर होती है।

प्रतिरक्षण क्या है? (What is Immunisation?)

किसी शिशु को विभिन्न रोगों से प्रतिरक्षण के लिए समय-समय पर उसे दवाई या टीके के माध्यम से ऐसी वैक्सीन दी जाती है जिसमें कुछ विशेष जीवाणु/वाइरस/टॉक्सिन विद्यमान होते है। यह जीवाणु/वाइरस/टॉक्सिन असक्रिय रूप में शरीर में रहते जिसके कारण यह शरीर पर आमतौर पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं डालते परंतु साथ-साथ यह शरीर में सफेद रक्त कोशिकाओं को एंटीबॉडिज बनाने के लिए प्रेरित करते है।

यह एंटीबॉडिज संक्रामक रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को शरीर में सक्रिय होते ही खत्म कर देती हैं। जिसके कारण बच्चा विभिन्न संक्रामक रोगों जैसे कि- क्षय, रोग, गलघोंटू, कुकुर खांसी, टेटनस, पोलियो, खसरा, हैजा, अतिसार, शीतला इत्यादि रोगों से मुक्त रहता है।

विभिन्न टीको/ वैक्सीन का पूर्ण नाम :

(1) बी.सी.जी. (BCG) : बैसिलस केलमिटि – ग्वेरिन (क्षय रोग प्रतिरोधी)।
(2) ओ.पी.वी. (OPV) : ओरल पोलियो वैक्सीन।
(3) डी.पी.टी. (DPT) : डिफ्थीरिया, परट्यूसिस तथा टिटनेस।
शिशुओं एवं छोटे बच्चों की कुछ सामान्य स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी समस्याएँ (Common Health and Nutrition Problems in Infants and Young Children)

हम जानते है की स्वास्थ्य तथा पोषण में गहरा संबंध है। शैशावस्था तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान बच्चों की रोग प्रतिरोधक प्रणाली पूरी तरह से विकसित नहीं होती। इसलिए ऐसे समय कोई भी रोग उनके लिए भविष्य में कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं तथा बीमारियों का कारण बन सकता है। कुपोषण एक राष्ट्रीय समस्या है। यह विशेष रूप से गाँवों एवं जनजातीय क्षेत्रों में महिला निरक्षरता, निर्धनता, बच्चों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं के बारे में अज्ञानता तथा स्वास्थ्य की देखभाल हेतु अपर्याप्त सुविधा आदि जैसे अनेक कारकों का परिणाम है।

जब माँ का दूध पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होता है तो बच्चे कुपोषण का शिकार होने लगते हैं तथा वे तब तक कुपोषित रहते हैं जब तक वे परिवार के सदस्य की तरह पूरा आहार नहीं लेते। इस अवधि के दौरान शिशुओं में अतिसार (डायरिया) की समस्या एक आम बात होती है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर में पानी तथा इलैक्ट्रोलाइट की कमी हो जाती है और यह दशा शिशु की मृत्यु का प्रमुख कारण होती है।

विभिन्न अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध हो चुका हैं कि अपर्याप्त पोषण क्षय रोग का प्रमुख कारण हैं। यह रोग अधिकतर उन क्षेत्रों में अधिक पाया जाता हैं जहां लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं होता इसके अतिरिक्त प्राइमरी हर्पीज़ सिम्प्लेक्स एक अन्य संक्रामक रोग है जो अधिकतर कुपोषित बच्चों को ज्यादा प्रभावित करता हैं। यदि शिशु को विशेष रूप से स्तनपान न कराया गया हो तथा जब पूरक भोजन से शिशुओं की पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति न हुई हो तो इस अवस्था में पोषक तत्वों की कमी से होने वाले रोग भी हो जाते हैं। शैशावस्था तथा बाल्यावस्था के दौरान विभिन्न प्रकार के संक्रामक भावना सबसे अधिक होती है। शैशावस्था के दौरान होने वाले कुछ प्रमुख संभावित संक्रामक रोगों का विवरण निम्नलिखित है-

1. कुपोषण (Malnutrition) : कुपोषण, पोषण की स्थिति होती है जिसमें एक या एक से अधिक पोषण तत्वों की कमी, अधिकता या के कारण बच्चे के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगे। ‘कु’ अर्थात बुरा और कुपोषण अर्थात् बुरा पोषण; जिसे ग्रहण करने से व्यक्ति तसके कारण वह अस्वस्थ हो जाता है।

2. प्रोटीन एवं कैलोरी की कमी (Protein Calorie Malnutrition) : छोटे बच्चों को प्रोटीन एवं कैलोरी की कमी PCM (Protein Calorie Malnutrition) के कारण क्वाशियोरकर और सूखा रोग होने की संभावना सबसे ज्यादा रहती है।

(i) क्वाशियोरकर (Kwashiorkor) : यह रोग शरीर में प्रोटीन की कमी कारण होता है। यदि बच्चे के आहार में कैलोरीज की कमी हो जाए, तो शरीर में उपस्थित प्रोटीन स्वतः ही ऊर्जा देने लगती है और धीरे-धीरे प्रोटीन की कमी के कारण बच्चा क्वाशियोरकर रोग से पीड़ित हो जाता है। यह रोग 1-5 वर्ष तक के बच्चों में अधिक पाया जाता है। प्रोटीन व कार्बोज खाने में असंतुलन व बच्चों के भोजन में प्रोटीन की कमी इस रोग का मुख्य कारण है।

क्वाशियोरकर रोग के लक्षण : बच्चे की वृद्धि एवं विकास बाधित हो जाता है। बच्चा मानसिक रूप से उदास तथा चिड़चिड़ा रहने लगता है, इसके अतिरिक्त बच्चे का चेहरा चाँद की तरह गोल सा दिखता है। शरीर में पानी के ठहराव के कारण सूजन आ जाती है। मोटे वसायुक्त यकृत के कारण पेट फूला-फूला सा दिखता है।

(ii) सूखा रोग (Marasmus) : आहार में पोषक तत्वों की कमी विशेषकर प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट की कमी के कारण होने वाला यह रोग अधिकतर 15 महीने तक के बच्चों में पाया जाता है। इसका मुख्य कारण बच्चे का माता का दूध समय से पहले छुड़ा देना और ऊपरी आहार से मिलने वाले प्रोटीन की मात्रा और पौष्टिकता में कमी होना। 6 माह से 4 वर्ष के बच्चों में इस रोग की संभावना सबसे अधिक रहती है।

सूखा रोग के लक्षण : पीड़ित बच्चे की मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती हैं तथा बच्चे का वजन बहुत कम रह जाता है। बच्चे का चेहरा बंदर या किसी बूढ़े आदमी के चेहरे की तरह हो जाता है। हड्डियों का ढाँचा बूढ़े आदमी की तरह झुर्रियोंदार त्वचा से ढका लगता है। पेट इतना सपाट होता है कि क्रमांकुचन की क्रिया दिखाई देती है।

3. रिकेट्स (Rickets) : आहार में विटामिन-डी की कमी होने पर बच्चे रिकेट्स का शिकार हो जाते हैं। यह विटामिन-डी की कमी से कैल्शियम तथा फॉस्फोरस खनिज लवण प्रयोग में नहीं आ पाने के कारण होता हैं।

रिकेट्स के लक्षण : बच्चों के दाँतों व अस्थियों के निर्माण पर असर पड़ता है। अस्थियाँ कमजोर होकर शरीर का वजन नहीं सह पाती। पीड़ित बच्चे के सिर की अस्थि विकृत होकर बड़ी, चपटी व चौकोर हो जाती है और माथे की अस्थि आवश्यकता से अधिक उभर आती हैं।

4. आयोडीन की कमी (Deficiency of Iodine) : बच्चों में आयोडीन की कमी का सीधा प्रभाव उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास पर पड़ता है। जिसके कारण बच्चा बोनेपन तथा घोंगा रोग का शिकार हो सकता है।

5. एनिमिया (Anaemia) : बच्चों में लौह तत्व की कमी के कारण एनिमिया रोग होता है। जिसके कारण बच्चों में रक्त की कमी हो जाती है।

6. पोषणात्मक अंधापन (Nutritional Blindness) : विटामिन ए की कमी के कारण होती है।
विद्यालय पूर्व बच्चों की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Nutritional Needs of Pre-School Children)

विद्यालय-पूर्व बच्चों की मूलभूत पोषण आवश्यताएँ परिवार के अन्य सदस्यों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं के समान ही होती हैं। इस अवस्था में बच्चों की पोषण संबंधी आवश्यक मात्राएँ उनकी आयु, लंबाई, शारीरिक भार, स्वास्थ्य स्थिति तथा शारीरिक एवं मानसिक सक्रियता स्तर के अनुसार अलग-अलग होती है।

ऊर्जा : इस अवस्था में ऊर्जा की आवश्यकता बच्चों की आयु बढ़ने के साथ-साथ उनकी बढ़ती क्रियाशीलता के कारण अधिक होती प्रोटीन एवं कैल्शियम : शारीरिक विकास के अनुरूप प्रोटीन एवं कैल्शियम की आवश्यकता बढ़ती जाती है। यह माँसपेशियों और अस्थियों के विकास के लिए भी आवश्यक होते हैं।

विटामिन : इस अवस्था में बच्चों में संक्रमण तथा बीमारियों की संभावना सबसे अधिक होती है। इसलिए विटामिन-सी और विटामिन-ए जैसे पोषक तत्वों की आवश्यकता अधिक होती है। शरीर में कैल्शियम और फॉस्फोरस के अवशोषण के लिए विटामिन-डी की आवश्यकता होती है।

खनिज लवण : इस अवस्था में खनिज लवणों की आवश्यकता दाँतों और हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए होती है। रक्त निर्माण के लिए लौह तत्व प्रर्याप्त मात्रा में चाहिए होता है।
विद्यालय-पूर्व बच्चों को पौष्टिक भोजन देने के लिए दिशा-निर्देश (Guidelines for Healthy Eating for Pre-Schoolers)

बच्चों की भोजन सम्बन्धी आवश्यकताएँ इसी अवस्था में बनती हैं। माता-पिता, मित्र तथा टी.वी. पर दिखाए गए खाद्य पदार्थों के विज्ञापन इनकी भोजन सम्बन्धी आदतों पर विशेष प्रभाव डालते हैं। अतः इस आयु वर्ग के बच्चों को पौष्टिक खान-पान तथा स्वास्थ्य का महत्व समझाने के लिए निम्नलिखित सुझावों का पालन करना चाहिए-

• छोटे बच्चे अक्सर परिवार के अन्य सदस्यों के खान-पान संबंधी व्यवहार का अनुकरण करते हैं। अतः बच्चों में खान-पान संबंधी अच्छी आदतें विकसित करने के लिए उन्हें परिवार के सभी सदस्यों के साथ बैठकर सुखद एवं आनंदमय वातावरण में भोजन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
• बच्चों को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार का भोजन (varitey of foods in child size portions) दिया जाना चाहिए। बच्चों को खाने के लिए प्लेट में रखी हर वस्तु को समाप्त करने की आदत सिखाई जानी चाहिए। साथ-ही-साथ उन्हें भोजन समाप्त करने के लिए पर्याप्त
समय भी दिया जाना चाहिए।
• बच्चों को भोजन तथा अल्पाहार नियमित समय पर दिया जाना चाहिए ताकि बच्चे को ठीक ढ़ंग से भूख लगे।
• बच्चे के पसंदीदा भोजन के साथ-साथ उन्हें नई-नई चीजें खिलाने का प्रयास भी करना चाहिए। बच्चों में भोजन के प्रति रुचि जागृत करने के लिए उन्हें संतुलित मात्रा में सख्त, मुलायम एवं रंगीन भोज्य पदार्थ खिलाऐ जाने चाहिए।
• बच्चों को ऐसे व्यंजन परोसे जाने चाहिए जिन्हें वह आसानी से खा सके, जैसे कि- हाथ से खाए जाने वाले भोजन के रूप में छोटे-छोटे सैंडविच, चपाती रोल्स, छोटे आकार के समोसे, इडली, पूरा फल अथवा उबला हुआ अंडा इत्यादि।
• जहां तक संभव हो बच्चे को बैठाकर ही भोजन खिलाना चाहिए न कि तब जब बच्चा इधर-उधर घूम रहा हो। बच्चे के बैठने का स्थान उसकी पसंद तथा शारीरिक सुविधा के अनुसार होना चाहिए।
• अक्सर देखा गया हैं कि थका हुआ बच्चा भोजन में रुचि नहीं लेता। इसलिए बच्चे को भोजन से पहले कुछ देर के लिए आराम करने दें।
• इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे को कोई विशेष खाद्य पदार्थ खाने के लिए किसी प्रकार का लालच या दंड कभी भी न दें।
• इस अवस्था में बच्चों को अपने हाथ से खाना पसन्द होता है। इसलिए खाद्य पदार्थों को छोटे-छोटे टुकड़ों में देना चाहिए।
• यदि उन्हें कोई खाद्य पसन्द नहीं आता तो कोशिश कर उनका रूप बदल कर दें।
• आहार को ऐसे आकर्षक ढंग से परोसा जाना चाहिए जिससे कि बच्चा उसे खाने के लिए लालायित हो उठे।
• बच्चों को अधिक मिर्च-मसाले, अधिक मीठा और अधिक रेशे वाला भोजन कम से कम देना चाहिए क्योंकि ऐसा भोजन बच्चे के कोमल पाचनतंत्र को क्षति पहुँचा सकता है। अतः सादा भोजन जैसे कस्टर्ड, पनीर, खीर इत्यादि अवश्य खिलाये।
• बच्चे तीव्र गंध वाले खाद्य-पदार्थ पसन्द नहीं करते।
• दिन के किसी भी भोजन से पहले ब्रेड, बिस्कुट, दूध, नमकीन, मिठाई आदि नहीं देनी चाहिए। इससे बच्चे की भूख मर जाती है।
• बच्चे को चाय कॉफी, कोको-कोला जैसे पेय पदार्थ कदापि नहीं देनी चाहिए। बालक को दालों एवं सब्जियों के सूप, फलों के रस, छाछ आदि पीने को दे।
• बच्चे को रंगीन प्लास्टिक के बने प्यालों, कटोरियों या प्लेटों में भोजन परोसे, जिससे बच्चा प्रसन्न होकर भोजन खा ले।
• बच्चे को मिश्रित सब्जियों एवं दालों की खिचड़ी बनाकर खिलायें ताकि उन्हें विभिन्न पौष्टिक तत्व प्राप्त हो सके।
विद्यालय-पूर्व बच्चों के लिए संतुलित भोजन की योजना बनाना (Planning Balanced Meals for Preschool Children)

विद्यालय-पूर्व अवस्था के बच्चे शारीरिक रूप से इतने सक्रिय होते हैं की उनकी ऊर्जा की आवश्यकता एक प्रौढ़ महिला की ऊर्जा की आवश्यकता से भी अधिक होती है। इस आयु वर्ग के बच्चों के विकास एवं सक्रियता के स्तर को ध्यान में रखते हुए यदि उन्हें पौष्टिक एवं संतुलित भोजन न दिया जाए तो वह वयस्क अवस्था तक अपनी पूर्ण आनुवंशिक क्षमताओं को प्राप्त नहीं कर पाएँगे।

इससे उनके संपूर्ण स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। यदि बच्चों के भोजन में प्रोटीन, विटामिन-ए अथवा लौह तत्व की कमी हो तो बच्चे प्रोटीन की कमी के कारण कुपोषण (पी.ई.एम.) से, विटामिन ए की कमी के कारण जीरोथैलमिया से तथा रक्त की कमी के कारण एनीमिया से ग्रस्त हो सकते हैं। आयोडीन युक्त नमक का उपयोग आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों से बचाव का सबसे सरल एवं सस्ता तरीका है।

विद्यालय-पूर्व बच्चे के आहार में निम्नलिखित तीन पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए-

• भोजन की संरचना, स्वाद, गंध एवं रंगों में विविधता (varitey) लाना ताकि बच्चे के भोजन संबंधी अनुभव को बेहतर बनाया जा सकें,
• जटिल कार्बोहाइड्रेट्स, चर्बी रहित माँस प्रोटीन तथा आवश्यक वसा के बीच संतुलन (balance) बनाना,
• मिठाई, आइसक्रीम, वसा से भरपूर फास्ट फूड तथा रिफाइन्ड आटे का संयमित प्रयोग (moderate use)।

विद्यालय पूर्व बच्चों के लिए दैनिक आहारों की आयोजना करते समय आई.सी.एम.आर. द्वारा सुझाए गए पाँच खाद्य वर्गों से किसी न किसी खाद्य पदार्थ का चयन जरूर किया जाना चाहिए। विद्यालय-पूर्व बच्चों के लिए संतुलित आहार आयोजना को अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए आई.सी.एम.आर. ने विभिन्न खाद्य समूहों की मात्रा के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-
विद्यालय-पूर्व बच्चों के लिए अल्पाहार (Snacks for Pre-Schoolers)

अल्पाहार (स्नैक्स) विद्यालय-पूर्व बच्चों के आहार का महत्वपूर्ण भाग होते हैं क्योंकि अपनी दिनचर्या के कारण अक्सर विद्यालय-पूर्व बच्चे अपने तीनों आहारों को पर्याप्त मात्रा में नहीं खा पाते मुश्किल है। ऐसी स्थिति में आहार अंतरालों के बीच पौष्टिक अल्पाहार (स्नैक्स) बच्चों को आवश्यक कैलोरी एवं पोषक तत्व प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त बच्चों को नये खाद्य-पदार्थ खिलाना शुरू करने के लिए भी अल्पाहार एक अच्छा विकल्प है। अल्पाहार बच्चों के स्कूल टिफ़िन में भी आसानी से भेजे जा सकते हैं।

पूर्व स्कूलगामी बच्चों के लिए एक दिन के आहार का नमूना

(i) सुबह का नाश्ता : दूध में बना हुआ गेहूँ का दलिया जिसमें 3-4 दाने बादाम के तथा 5-6 दाने किशमिश के हों। इसके अतिरिक्त एक फल जैसे कि- सेब इत्यादि ।
(ii) प्री-स्कूल टिफिन : दो तह वाला सेंडविच जिसमें मसला हुआ उबला अण्डा, घिसी हुई गाजर तथा चटनी डली हो। इसके साथ पीने के लिए फलों के रस का पैक।
(iii) दोपहर का भोजन : पालक की सब्जी, चपाती, चावल, दही, उबले चने और टमाटर की चाट।
(iv) शाम के स्नैक्स : मिल्क शेक, मुट्ठी भर मूँगफली के दाने तथा बच्चे के पसंद का कोई एक स्नैक्स।
(v) रात का भोजन : मौसमी सब्जी, दाल या चिकन तथा चपाती।
(vi) सोते समय : 1 ग्लास गर्म दूध।

ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को दिए जाने वाले अल्पाहार में प्रायः मुरूक्कु, लड्डू, उपमा, मट्ठी चुरूटु जैसे अल्पाहार शामिल होते हैं। इस प्रकार के अल्पाहार अक्सर पारंपरिक रूप से निर्मित तथा पौष्टिक होते हैं किंतु इनमें वसा एवं शर्करा की मात्रा बहुत अधिक होती हैं। ग्रामीण बच्चों के अधिक क्रियाशील होने के कारण उनकी ऊर्जा आवश्यकता काफी अधिक होती है, इसलिए उनकी इन जरूरतों के अनुसार पर्याप्त कैलोरी देने में ये अल्पाहार (स्नैक्स) लाभदायक हो सकते हैं।
विद्यालय-पूर्व बच्चों के लिए कम लागत वाले अल्पाहार (स्नैक्स) के कुछ उदाहरण (Some Examples of Low Cost Snacks for Pre-Schoolers)

कम कीमत के परंतु स्वास्थ्यवर्धक भोजन के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है-

• सोयाबीन दाल तथा सूरजमुखी के बीजों को बराबर मात्रा में मिलाकर पीस लेते है तथा खमीरीकरण विधि का प्रयोग करके उनकी वड़ियाँ बना लेते है।
• परम्परागत मूँगफली की पट्टी की तरह मीठी पट्टी जिसे विशेष रूप से ग्रामीण तथा निम्न आय वर्ग के शहरी इलाकों में खूब पसंद किया जाता है।
• क्षेत्रीय भोजन जैसे कि चावल का आटा, मटर व चने की दाल तथा गुड़ को मिलाकर विभिन्न प्रकार के स्नैक्स बनाए जा सकते है।
• सन्डल, पायसम, ढोकला तथा उपमा भी काफी प्रसिद्ध तथा सस्ते भोज्य पदार्थ हैं।
• मौसमी तथा स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सब्जियों से तैयार किया गया सूप इस सूप में बची हुई सब्जियाँ और दालों को मिलाया जा सकता है।
भूने हुए चटपटे, मसालेदार आलू।
• चावल, गेहूँ या मक्के से तैयार चिवड़े में मौसमी सब्जियाँ मिलाकर उसे चटनी के साथ परोसा जा सकता है।
• खिचड़ी, जिसमें मौसमी सब्जियों को दाल के साथ मिलाकर उसका पौष्टिक मान बढ़ा दिया जाए।
विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को खिलाना (Feeding Children With Special Needs)

“ असमर्थ बच्चा वह बच्चा होता है जिसकी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक तथा सामाजिक क्षमताएँ सामान्य या औसत से कम तथा जिसे अपनी पूर्ण क्षमताएँ विकसित करने के लिए विशेष मदद एवं शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है।”

विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को भोजन या कोई भी खाद्य पदार्थ खिलाना काफी चुनौतिपूर्ण कार्य होता है। उनकी पौष्टिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भोजन कराते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

1. प्रेक्षण (Observations) : खाने के दौरान बच्चे के व्यवहार तथा उसकी प्रगति पर विशेष ध्यान दें। उनकी भोजन संबंधी पसंद-नापसंद, उनके भोजन करने का तरीका, किसी विशेष भोजन के प्रति आकर्षण तथा उनकी शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं को विशेष ध्यान रखना चाहिए। उनके भोजन काल को आनन्दमयी तथा उन्हें पर्याप्त पोषण ग्रहण करने के लिए आवश्यक योग्यता विकसित करने के लिए मदद तथा प्रोत्साहित करें।

2. भोजनशैली विकसित करना (Developing Eating Skills) : किसी भी प्रकार की अक्षमता से ग्रस्त बच्चे सामान्य बच्चे की अपेक्षा खाने में अधिक समय लेते है। कुछ विशेष प्रकार की अक्षमताओं के कारण बच्चे को स्वयं भोजन करने में परेशानी का सामना करना पड़ता है जिसके कारण वह अक्सर खाने के दौरान कोई-न-कोई गलती कर बैठता है।

ऐसी स्थिति में बच्चों को सकारात्मक वातावरण प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए ताकि वह सही ढंग से बिना किसी डर या परेशानी के भोजन ग्रहण कर सके। इसके लिए बच्चों को आरामदायकध कराया जाना चाहिए तथा यदि बच्चा स्वयं भोजन कर पाने में सक्क्षम हो तो उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, फिर चाहे वह खाने में थोड़ा अधिक समय ही क्यों न ले।

ऐसे बच्चों को नियमित समय पर ही भोजन प्रदान किया जाना चाहिए तथा उनकी पसंद-नापसंद का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त वह किस स्थान पर भोजन खाना पसंद करते है इस बात का भी विशेष ध्यान रखना जाना चाहिए।

3. विशेष आहार (Special Diets) : कई अक्षम बच्चों को उनके नियमित आहार में तथा खाने के समय में कुछ परिवर्तनों की आवश्यकता होती है। जैसे कि स्पास्टिक बच्चों को सामान्य भोजन चबाने में परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसके लिए उन्हें अर्ध-तरल या बहुत ही बारीक कटा अथवा नरम भोजन दिया जाना चाहिए ताकि वह उसे आसानी से निगल (swallow) सके। इसके अतिरिक्त यदि आवश्यकता हो तो भोजन नली का उपयोग भी किया जा सकता है।

4. अशक्त बच्चों की पसंद को ध्यान में रखते हुए अतिरिक्त वसा, सीमित तरल पदार्थ, विशेष फार्मूला अथवा अन्य आहार संबंधी परिवर्तन करने चाहिए।

5. वे सभी खाद्य पदार्थ जिसके प्रति विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चे को एलर्जी है, उन्हें उसके आहार से तुरंत हटा दिया जाए क्योंकि इससे नुकसान हो सकता है।

6. प्रेम की आवश्यकता (Need of Love) : विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को पूर्ण पौष्टिक भोजन खिलाना, देखभाल करने वाले व्यक्ति के लिए कठिन एवं चुनौती भरा कार्य होता है। ऐसे बच्चे भोजन खाने, चबाने निगलने में अधिक समय लेते हैं तथा पूरा भोजन नहीं खा पाते, फलस्वरूप पौष्टिक भोजन से वंचित रह जाते हैं। अतः उन्हें संयम एवं प्रेमपूर्वक भोजन खिलाना अत्यन्त आवश्यक है।
विद्यालय-पूर्व बच्चों का प्रतिरक्षण (Immunisation of Pre-School Childrens)

विभिन्न प्रकार संचारी रोगों से बचाव के लिए विद्यालय पूर्व बच्चों को निम्न वैक्सीन दिए जाते है-

स्कूलगामी (7-12 वर्ष) बच्चों के लिए पोषण, स्वास्थ्य तथा स्वस्थता (Nutrition, Health and Well-Being of School Age Children)

7 से 12 वर्ष तक के बच्चों को स्कूलगामी बच्चे भी कहा जाता है। इस आयु वर्ग में बच्चे बहुत क्रियाशील होते हैं। खेलने-कूदने के अतिरिक्त, स्कूल जाने में, गृहकार्य करने में बच्चे काफी ऊर्जा खर्च करते हैं। अतः उनके भोजन में अन्य पोषक तत्वों के अतिरिक्त ऊर्जायुक्त आहार भी होने चाहिए।

इस अवस्था के दौरान बच्चे शारीरिक रूप से काफी मजबूत बन चुके होते हैं जिसके कारण वह आसानी से संचारी रोगों से प्रभावित नहीं होते है। पहले की अवस्थाओं की अपेक्षा इस अवस्था में विकास प्रक्रिया धीमी हो जाने के कारण शारीरिक परिवर्तन भी धीमे पड़ जाते हैं। 9 से 10 वर्ष तथा उससे आगे के वर्षों में बालक एवं बालिकाओं के विकास के पैटर्न में भिन्नता आने लगती है।
स्कूल जाने वाले बच्चों की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Nutritional Requirements of School Going Children)

9 वर्ष की आयु तक के बालक एवं बालिकाओं दोनों के लिए पोषण संबंधी आवश्यकताएँ समान होती हैं। उसके पश्चात् बालक एवं बालिका की कुछ पोषक तत्वों की आवश्यकताओं में अंतर आ जाता हैं। स्कूल जाने वाले बच्चों की व्यवस्था दिनचर्या के कारण उनकी पोषण संबंधी आवश्यकताएँ बदलती
हैं, जैसे कि-

1. ऊर्जा (Energy) : इस आयु के बच्चे खेलकूद व शारीरिक गतिविधियाँ अधिक करने के कारण काफी क्रियाशील रहते हैं अत: इनकी ऊर्जाnआवश्यकता अधिक होती हैं। इसके अतिरिक्त किशोर अवस्था के दौरान वृद्धि में तेजी के लिए कैलारी के पर्याप्त संचय (रिर्जव) को बनाए रखने के लिए तथा लड़कों में माँसपेशीय ऊत्तक अधिक होने के कारण उनकी ऊर्जा की आवश्यकता लड़कियों की अपेक्षा अधिक होती है।

2. प्रोटीन (Protein) : बच्चों में शारीरिक वृद्धि एवं विकास निरन्तर होता रहता है, इसके साथ ही खेलकूद व चोट आदि लगने पर ऊतकों के मरम्मत की क्रिया भी लगातार चलती है। इसलिए बच्चों को उत्तम क्वालिटी के प्रोटीन की आवश्यकता होती है।

3. लौह तत्व (Iron) : शरीर के आकार में वृद्धि के साथ रक्त की मात्रा की भी वृद्धि होती है। अतः आहार में लौह तत्व की उचित मात्राmआवश्यक है। लड़कियों को मासिक स्राव की तैयारी के लिए अतिरिक्त लौह तत्वों की आवश्यकता होती हैं।

4. कैल्शियम (Calcium) : बच्चों की शारीरिक वृद्धि के साथ-साथ उनकी हड्डियों में भी मजबूती आती है तथा अस्थि-तंत्र विकसितmहोता जाता है। दाँतों तथा हड्डियों में कैल्शियम का जमाव होने लगता है। इसलिए स्कूल जाने वाले बच्चों को कैल्शियम की भी विशेष रूप से आवश्यकता होती हैं।

5. लवण (Minerals) : स्कूल जाने वाले बच्चे शारीरिक रूप से काफी क्रियाशील रहते हैं अर्थात् खेलते-कूदते हैं, जिसके कारण उन्हें पसीना भी अधिक आता है। ऐसे में उन्हें विभिन्न लवणों जैसे कि- सोडियम, पोटेशियम इत्यादि की भी आवश्यकता रहती हैं।
विद्यालय जाने वाले बच्चों के लिए आहार आयोजन करते समय ध्यान देने योग्य बातें

1. आहार में विविधता लाना (To Bring Variety In Food) : हम जानते है कि कोई भी एक भोज्य पदार्थ सभी पोषक तत्व नहीं करा सकता है। इसलिए बच्चों को समुचित पोषण प्रदान करने के लिए उनके भोजन में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को सम्मिलित करना चाहिए। भोजन में विभिन्नता लाने से बच्चों की भोजन में रुचि बनी रहती है।

2. अच्छा पोषण सुनिश्चित करना (Ensure Good Nutrition) : इस आयु वर्ग के बच्चों को अधिक प्रोटीन, लौह तत्व, कैल्शियम आयोडीन इत्यादि जैसे पोषक तत्वों की विशेष आवश्यकता होती है इसलिए ऐसी आयु में बच्चों को साबुत अनाज, फल एवं सब्जियां खाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इससे उनके शरीर में सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होगी जिसके कारण वह विभिन्न बीमारियां जैसे कि- मधुमेह, हृदय संबंधी रोगों इत्यादि से बच पाएगें।

3. संतृप्त वसा, नमक तथा चीनी का सीमित सेवन (Limit Intake of Saturated Fat, Salt and Sugar) : पूर्व-स्कूलगामी बच्चों की अपेक्षा स्कूल जाने वाले बच्चों की शारीरिक गतिविधियों में कमी आती है। यदि ऐसे समय उनकी दैनिक कैलोरी उपभोग को नियंत्रित न किया जाए तो बच्चे मोटापे तथा अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रस्त हो सकते है। अधिक वसा तथा चीनी वाले खाइ पदार्थो के सेवन से मोटापे तथा दाँतों के क्षय की संभावना बढ़ जाती है। जबकि अत्यधिक नमक के सेवन से उच्च रक्तचाप तथा विभिन प्रकार के हृदय एवं गुर्दे संबंधी रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।

4. सुबह का नाश्ता अवश्य करें (Ensure Eating Breakfast) : इस अवस्था के बच्चे के लिए सुबह का नाश्ता सबसे महत्वपूर्ण आहार होता है, क्योंकि यह रात के भोजन के लम्बे अंतराल के बाद लिए जाने वाला पहला आहार होता है। सुबह का नाश्ता न करने से अक्सर स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता जिससे बच्चे की शारीरिक एवं मानसिक प्रदर्शन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सुबह के नाश्ते में बच्चों को प्रोटीन तथा ऊर्जायुक्त खाद्य पदार्थ दिए जाने चाहिए। नाश्ता पर्याप्त और संतुलित होना चाहिए। यह बहुत भारी नहीं होना चाहिए जिसे खाकर बच्चा स्कूल में सुस्ती का अनुभव करे और उसका मन पढ़ाई में न लगे।

5. बच्चों की सलाह लें (Involve Children in Meal Planning) : दिनभर में क्या पकाया जाना हैं जैसे विषय में यदि संभव हो तो घर के बच्चों की सलाह ले लेनी चाहिए। बच्चों की सलाह के अनुरूप भोजन बनाने से बच्चे उसे बढ़े ही मन से खाते है। इसके अतिरिक्त भोजन सामग्री खरीदते समय यदि बच्चों को भी साथ ले लिया जाए और उन्हें यह समझाया जाए कि कच्ची भोजन सामग्री खरीदते समय क्या-क्या ध्यान में रखना चाहिए, इससे बच्चों की भोजन के प्रति स्वस्थ और सकारात्मक धारणाएँ विकसित होती हैं।

6. आहारों की संख्या (Number of Meals) : स्कूल जाने वाले बच्चों को नियमित अंतराल पर दिन में तीन बार संतुलित भोजन तथा दो बार पौष्टिक स्नैस परोसने चाहिए। स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए आई.सी.एम.आर. द्वारा अनुशंसित भोजन की मात्रा निम्नलिखित हैं-

स्कूलगामी बच्चों के लिए एक दिन के आहार का नमूना

० सुबह का नाश्ता : दूध तथा कॉर्नफ्लेक्स, रवा-उपमा, कोई एक मौसमी फल जैसे कि- सेब या अमरूद इत्यादि।
० स्कूल का टिफिन : ग्रिल सेंडविच जिसमें आलू या उबले अण्डे के साथ गाजर इत्यादि जैसी सब्जियाँ पड़ी हो।
० दोपहर का भोजन : वेजीटेबल पुलाव, दाल, चावल, चपाती, टमाटर की चटनी, खीरे का सलाद तथा छाछ।
० शाम का नाश्ता : उबले आलू, खीरे, प्याज तथा टमाटर युक्त अंकुरित मूंग दाल की चाट।
० रात का भोजन : मूँग की दाल या चिकन करी, भिण्डी-प्याज की सब्जी, चपाती तथा सलाद।
० सोन से पहले : 1 ग्लास गर्म दूध।

1. दक्षिण के ग्रामीण क्षेत्रों में नाश्ते में उपमा (केले के साथ), पूतू (चना अथवा केले के साथ), इडली अथवा डोसा (साम्बर/ नारियल की चटनी के साथ) अथवा अप्पमा, (आलू/चिकन करी के साथ) खाएँ जाते हैं।

2. उत्तर में छाछ के साथ परांठे या आलू के साथ पूड़ी जैसे खाद्य-पदार्थ खाए जाते हैं।

3. कटहल और सूखे मेवों की पेस्ट को चावल के आटे में भरकर भाप से पकाना या चावल के आटे को सांचों में से पतली सेवियों के रूप में निकालकर भाप से पकाना भी अल्पाहार के ही रूप हैं।

4. मुरुक्कु भी बच्चों को स्नैक के रूप में परोसा जा सकता है।

5. जनजातीय क्षेत्रों में जंगल से एकत्र किए गए भोजन जैसे कि- सूखे मेवे, बेर तथा पेड़ों से प्राप्त अन्य फलों/फूलों पर जोर दिया जाता है। दोपहर एवं रात्रि के भोजन में रोटी तथा चावल, दाल/दाल तथा एक सब्ज़ी हो सकती है।
पूर्व स्कूलगामी तथा स्कूल जाने वाले बच्चों के आहार को प्रभावित करने वाले कारक (Factors That Influence Diet Intake of Pre-School and School Going Children)

पूर्व स्कूलगामी तथा स्कूल जाने वाले बच्चों की भोजन संबंधी आदतें निम्न कारकों पर निर्भर करती है-

1. पारिवारिक माहौल (Family Environment) : परिवार तथा पारिवारिक वातावरण एक ऐसा महत्वपूर्ण कारक हैं जो बच्चों का आहार संबंधी मार्गदर्शन कर उनमें स्वस्थ आहार के प्रति अभिरुचि बढ़ाने तथा उनके आहार पैटर्न को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।

बच्चो की खाद्य संबंधी आदतें उनके माता-पिता के पोषण संबंधी ज्ञान, उनकी भोजन संबंधी पसंद-नापसंद तथा उनकी भोजन संबंधी आदतों से ही प्रभावित होती हैं। इसलिए माता-पिता को पोषण संबंधी उचित ज्ञान होना जरूरी हैं ताकि वह इसका प्रयोग अपने बच्चों के लिए आहार योजना बनाने में कर सकें। परिवार द्वारा बच्चों के साथ एक सुखद एवं आरामदेह वातावरण में एक साथ भोजन करने से बच्चें में भोजन संबंधी अच्छी आदतें विकसित होती हैं।

2. मीडिया (Media) : आजकल विभिन्न प्रचार माध्यमों पर कंपनियाँ अपने खाद्य पदार्थों का इतना प्रचार करती है कि बच्चे इन विज्ञापनों से आकर्षित होकर उस खाद्य उत्पाद को खाने के लिए हर संभव प्रयास करते है। ऐसे प्रचार अक्सर भ्रामक ही होते है, क्योंकि उनमें जिन फायदों का दावा किया जाता है वह वास्तविकता से काफी परे होते है। ऐसे भोज्य पदार्थ ही बच्चे की पौष्टिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होते तथा इन्हें खाने के बाद बच्चे में नियमित आहार के प्रति भूख भी कम हो जाती है।

3. मित्र (Peers) : स्कूल जाने के दौरान जब बच्चा अन्य हम उम्र बच्चों के संपर्क में आता है तो ऐसे में उसकी भोजन संबंधी प्राथमिकता बदलने लगती है। वह अब वहीं भोजन या खाद्य पदार्थ लेना पसंद करते है जो उनके मित्र खाते है।

इस आयु वर्ग के बच्चे अक्सर अपने मित्रों के साथ बैठकर अपने घर से लाया हुआ पुरा टिफिन खत्म कर लेते है तथा इसके साथ-साथ वह मित्रों के द्वारा लाया गया। भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन करना भी पसंद करते हैं जिसे वे अन्यथा मना कर देते हैं।

4. सामजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव (Social Cultural Influences) : हर क्षेत्र के अपने कुछ खास भोज्य पदार्थ होते है। हर परिवार में इस आयु वर्ग के बच्चों को भी वहीं भोजन दिया जाता है जो उनके परिवार के बड़े सदस्यों को दिया जाता है। परिवार के साथ भोजन करने से बच्चों में अपने तथा दूसरे क्षेत्रों के भोजन के प्रति रुचि जागृति होने लगती है।

उदाहरण के लिए, भारत के उत्तरी प्रदेशों में रहने वालों बच्चों को दक्षिण भारतीय व्यंजन जैसे कि- इडली, डोसा, वड़ा इत्यादि विशेष रूप से पसंद होता है। उसी प्रकार दक्षिण भारत में रहने वाले बच्चों को राजमा चावल तथा परांठे इत्यादि बड़े पसंद होते है।

5. अनियमित भूख (Erratic Appetite) : कई बार ऐसा होता हैं कि बच्चा एक समय का भोजन अच्छी तरह खा लेता हैं जबकि दूसरे समय के भोजन को मना कर देता है। बच्चे का ऐसा व्यवहार कोई विशेष चिंता का विषय नहीं होता क्योंकि अधिकतर यह अस्थायी मनोदशा होती है और यदि भोजन के संबंध में किसी प्रकार का प्रलोभन, दण्ड अथवा कठोर नियम लागू न किए जाएँ तो ऐसी प्रवृत्ति जल्दी गायब भी हो जाती है।
स्वास्थ्यवर्धक आदतें (Healthy Habits)

अब तक हम समझ चुके है कि अच्छा स्वास्थ्य, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थता का योग है। भोजन में पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों की उपलब्धी के बाद भी बच्चों में कुछ स्वास्थ्यवर्धक आदतें होना अति आवश्यक है। ऐसी ही कुछ स्वास्थ्यवर्धक आदतें का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

1. भोजन संबंधी उचित आदतें विकसित करना ( Develop Sensible Eating Habits) : इस आयु के बच्चे अपना अधिकतर समय टेलीविजन देखने या वीडियों गेस खेलने में बिताते है। ऐसे समय उनकी शारीरिक क्रिया न के बराबर होती है ऐसी स्थिति में माता-पिता को समझदारी से काम लेते हुए बच्चों को समय-समय पर ताजे कटे फल तथा सलाद आकर्षक ढंग से काट कर तथा बनाकर परोसते रहना चाहिए तथा हर डिश को कुछ आकर्षक नाम देना चाहिए ताकि बच्चा उसे कुछ नया समझकर खाने के लिए तैयार हो जाए।

2. शारीरिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करना (Encourage Physical Activities) : अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छे भोजन के साथ-साथ नियमित रूप से शारीरिक क्रियाएँ करना भी जरूरी होता है। रोज कम-से-कम 45 से 60 मिनट तक मध्यम गति के व्यायाम करने से बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है। इसके अतिरिक्त बच्चों को कम टेलीविजन देखने तथा अधिक-से-अधिक खेलों में भाग लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए। उन्हें विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के प्रेरित करना चाहिए। माता-पिता को भी बच्चों के सामने आदर्श रोल मॉडल के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए।

3. सुरक्षित भोजन सुनिश्चित करना (Ensure Food Safety) : बच्चों को साफ-सुधरी जगहों पर ही खाने-पीने की आदत डालनी चाहिए। ग्रहण किए जाने वाला भोजन साफ-सुथरा तथा सुरक्षित वातावरण में पका हुआ होना चाहिए। बच्चों को खाने से पहले हाथ आवश्यक धोने चाहिए इसके अतिरिक्त कच्चे खाए जाने वाले फल तथा सब्जियों को भी धो कर ही खाना चाहिए। माता-पिता को बच्चों के सामने भोजन पकाते समय खाद्य स्वच्छता एवं सुरक्षा का पूरा ध्यान रखना चाहिए, ताकि बच्चे भी वहीं आदत ग्रहण करें।

4. भोजन की मात्रा पर नियंत्रण रखना (Ensure Control Over Intake of Food Quantity) : 9-12 वर्ष की आयु के बच्चे अपनी भूख को बोल कर समझा सकते है। इसलिए हमें उन्हें कभी भी भोजन करने के लिए विवश नहीं करना चाहिए, इस आयु के बच्चों के लिए भोजन को कभी भी लाड-प्यार जताने का माध्यम नहीं बनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि इस आयु वर्ग के बच्चे कभी-कभी दिन के किसी एक समय का भोजन न करें तो यह कोई चिंता का विषय नहीं होता, क्योंकि इससे बच्चे के स्वास्थ्य पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। परंतु इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि यह व्यवहार एक आदत का रूप न ले लें।
स्कूलगामी बच्चों की स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी समस्याएँ (Health and Nutrition Issues of School Age Children)

नियमित प्रतिरक्षण कार्यक्रम तथा उचित पोषणयुक्त भोजन के कारण स्कूलगामी बच्चे सामान्य सर्दी-जुकाम से लड़ने में सक्क्षम हो जाते है। परंतु इसके अतिरिक्त कई ऐसी स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी समस्या है जिनका सामना एक स्कूल जाने वाले बच्चों को करना पड़ सकता है। जैसे कि-

1. मोटापा (Obesity) : यह एक बहुत ही सामान्य तथा गंभीर स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी समस्या है जिसका मुख्य कारण अधिक मात्रा में वसायुक्त खाद्य पदार्थों का सेवन करना, अधिक मात्रा में शर्करायुक्त पदार्थों का सेवन करना, कम रेशेयुक्त भोजन का सेवन करना तथा असक्रिय जीवनशैली हैं। यह समस्या शहरी बच्चों में विशेष रूप से उच्च आय वर्ग के परिवारों से आने वाले बच्चों में सर्वाधिक पाई जाती है।

2. टाईप – II मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप (Type-II Diabetes and Hypertension) : आजकल कुछ समय पहले तक मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप जैसी स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी समस्याएँ बच्चों में बहुत ही कम पाई जाती थी, परंतु आज के युग में यह समस्या हर आयु
वर्ग में आम होती जा रही है। बच्चों में इस समस्या का प्रमुख कारण बचपन के दौरान मोटापे पर नियंत्रण न कर पाना तथा असक्रिय जीवनशैली है।

3. अल्पपोषण (Under Nutrition) : जब बच्चे को नियमित रूप से अपनी पौष्टिक आवश्यकताओं से कम पोषक तत्व प्राप्त हों तो वह अल्पपोषण की समस्या से ग्रस्त हो जाता है। अल्पपोषण के परिणामस्वरूप बच्चे की वृद्धि और विकास रूक जाता है और उसमें कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

निम्न आय वर्ग के बच्चों में यह एक आम परंतु गम्भीर स्वास्थ्य समस्या है। गरीब परिवारों के बच्चों को अक्सर खाली पेट ही विद्यालय जाना पड़ता है। जिसका परिणाम यह होता है कि ये कुपोषित बच्चे विद्यालय में पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। इसके अतिरिक्त उनमें विभिन्न प्रकार की पोषण संबंधी बीमारियों यहाँ तक कि मृत्यु की संभवना भी बनी रहती है।
सरकारी प्रयास (Government Initatives)

केंद्रीय सरकार द्वारा कार्यान्वित मध्याह्न भोजन योजना / मिड-डे-मील योजना (MDMS) के अंतर्गत विद्यालय में पहली से आठवीं कक्षा वाले बच्चों को निःशुल्क भोजन प्रदान किया जाता है। इस योजना के कई सकारात्मक परिणाम सामने आएँ हैं।

योजना के संदर्भ में विभिन्न अध्ययन यह दर्शाते हैं कि कक्षा में बच्चों का कार्य निष्पादन एवं ध्यान लगाने की क्षमता में काफी सुधार हुआ है। योजना के चलते न केवल विद्यालय में छात्रों का नामांकन बढ़ा है अपितु विद्यालय छोड़ने की दर में भी कमी आई है। मध्याह्न भोजन की योजना के कारण विद्यालयी बालिकाओं की संख्या बढ़ने से शिक्षा में लिंग भेद ही कम हुआ है।

हमारा देश आज भी अल्पपोषण तथा अतिपोषण की दोहरी समस्या का सामना कर रहा हैं। इसलिए यदि हम पौष्टिक भोजन के लाभों का प्रचार करते रहें तो भविष्य में इसके सकारात्मक परिणाम जरूर देखने को मिलेगा। इसके अतिरिक्त निःशुल्क स्वास्थ्य जाँच एवं उपचार प्रदान करने वाले “विद्यालय स्वास्थ्य” कार्यक्रमों से भी बच्चे के स्वास्थ्य में सुधार आएगा।

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