NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 8 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास (Survival, Growth and Development) Notes In Hindi

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 8 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास (Survival, Growth and Development)

TextbookNCERT
class11th
SubjectHome Science
Chapter8th
Chapter Nameउत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास
CategoryClass 11th Home Science Notes in hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt
NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 8 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास (Survival, Growth and Development) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे- उत्तरजीविता वृद्धि तथा विकास की संकल्पना, वृद्धि तथा स्वास्थ्य के बीच पारस्परिक संबंध, बाल्यावस्था के विभिन्न चरणों के लक्षण, विकास के पड़ावों का वर्णन, तथा बाल्यावस्था के विभिन्न क्षेत्रों में विकास।

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 8 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास (Survival, Growth and Development)

Chapter – 8

उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास

Notes

उत्तरजीविता का अर्थ (Meaning of Survival)

उत्तरजीविता को विषम/कठिन परिस्थितियों में भी जीवित बने रहने की स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता हैं। हर सामान्य व्यक्ति के लिए उत्तरजीविता का सरल अर्थ हैं- ‘जीवित बने रहना’ तथा ‘मूलभूत स्तर पर जीवन संबंधी अनिवार्य कार्य’ करते रहना।

बच्चे केवल तभी जीवित रह सकते है तथा अपने बुनियादी काम कर पाते हैं जब उनकी उचित देखभाल की जाती है, उन्हें पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जाता है तथा रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं से उनकी सुरक्षा की जाती हैं। यदि बच्चे किसी भी कारण से कुपोषण या किसी प्रकार के संक्रमण का शिकार हो जाते हैं तो उन्हें ऐसी स्थिति से उबारने की आवश्यकता होती हैं अन्यथा उनकी उत्तरजीविता (survival) खतरे में पड़ सकती हैं।

यह स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती हैं जब बच्चा निम्न आय वाले परिवार से संबंध रखता हों। अतः बच्चों को ऐसी समस्याओं से बचाने के लिए उन्हें सही मात्रा में पर्याप्त पोषक तत्व देना अनिवार्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त उन्हें शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था के जानलेवा रोगों, जैसे कि- तपेदिक, काली खाँसी, डिपथीरिया, पोलियो तथा टिटनेस आदि से बचाने के लिए उचित प्रतिरक्षण उपलब्ध करवाना भी जरूरी हैं।

वर्ष 2007 में जारी की गई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्वभर के 92 लाख जीवित पैदा हुए बच्चे अपने पाँचवें जन्मदिन से पहले ही मर जाते हैं। इनमें से लगभग 30 लाख बच्चे केवल दक्षिणी एशिया के विकासशील देशों से हैं तथा उनकी मृत्यु ऐसे रोगों के कारण हो जाती है, जिनकी रोकथाम या उपचार आसानी से किया जा सकता था, जैसे कि न्यूमोनिया के लिए एंटीबायोटिक्स दवाएँ देकर अथवा अतिसार की स्थिति में पीड़ित बच्चे को नमक तथा चीनी के सरल घोल देकर उनके जीवन को बचाया जा सकता था। इनमें से एक तिहाई से भी अधिक बच्चों की मृत्यु ‘कुपोषण’ के कारण होती है।

विश्व भर में हर साल, पाँच वर्ष से कम आयु के 17 प्रतिशत (लगभग 20 लाख) बच्चों की मृत्यु अतिसार के कारण हो जाती है। विश्व भर में बच्चों की मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण यहीं रोग हैं। ‘बाल मृत्यु दर (child mortality rate) तथा निर्धनता का आपस में गहरा संबंध है।’ इस कथन को इस तथ्य द्वारा सिद्ध किया जा सकता है कि, गरीब देशों में तथा धनवान देशों के निर्धनतम (poorest) वर्गों में बाल-मृत्यु दर का प्रतिशत बहुत अधिक हैं। ऐसी गम्भीर समस्या से निपटने के लिए यह जरूरी है कि विभिन्न सरकारें अपने यहाँ जन स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करें ताकि हर नागरिक इनका लाभ उठा सकें। विश्व भर में हर साल, पाँच वर्ष से कम आयु के 17 प्रतिशत (लगभग 20 लाख) बच्चों की मृत्यु अतिसार के कारण हो जाती है। विश्व भर में बच्चों की मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण यहीं रोग हैं।

‘बाल मृत्यु दर (child mortality rate) तथा निर्धनता का आपस में गहरा संबंध है।’ इस कथन को इस तथ्य द्वारा सिद्ध किया जा सकता है कि, गरीब देशों में तथा धनवान देशों के निर्धनतम (poorest) वर्गों में बाल-मृत्यु दर का प्रतिशत बहुत अधिक हैं। ऐसी गम्भीर समस्या से निपटने के लिए यह जरूरी है कि विभिन्न सरकारें अपने यहाँ जन स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करें ताकि हर नागरिक इनका लाभ उठा सकें।

इसके साथ-साथ सरकारों को अपने नागरिकों को स्वच्छ जल एवं साफ-सुथरा वातावरण प्रदान करने का भी विशेष प्रयास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त शिक्षा, विशेषकर लड़कियों एवं माताओं को शिक्षित करने से बच्चों के जीवन को बचाने में काफी सहायता प्राप्त हो सकती है। कोई भी बच्चा केवल तभी आदर्श रूप से विकसित हो सकता है जब उसे सभी मूलभूत सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध हों। ऐसा बच्चा जो विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों एवं अभावों में अपना जीवनयापन कर रहा हो वह कभी भी सही ढंग से विकसित नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थितियों में कई बार बच्चों की वृद्धि पूरी तरह से रूक भी सकती है। बच्चों में वृद्धि के रुक जाने की स्थिति को विकास की विफलता (growth failure) कहते हैं।
वृद्धि एवं विकास (Growth and Development)

वृद्धि का अर्थ शरीर के अंगो के आकार व रूप में बढ़ोत्तरी है। मनुष्यों के सन्दर्भ में वृद्धि गर्भधारण के दो सप्ताह बाद से शुरू होकर व्यक्ति के पूर्ण रूप से परिपक्व/व्यस्क होने तक चलती रहती है। शरीर के आकार में वृद्धि को प्रत्यक्ष रूप से देखा तथा मापा जा सकता है।

विकास जीवनभर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जिसके कारण बालक धीरे-धीरे विभिन्न कार्यों व कौशलों के लिए योग्यता अर्जित करता है। किसी व्यक्ति के व्यवहार में परिपक्वता उसके ज्ञानात्मक, सामाजिक तथा भावात्मक विकास के कारण ही संभव हो पाती है। विकास के फलस्वरूप हुए परिवर्तनों को प्रत्यक्ष रूप में न तो देखा जा सकता है और न ही मापा जा सकता है।

वृद्धि एवं विकास एक-दूसरे से संबंधित हैं जैसे कि- शिशु का शारीरिक आकार बढ़ना वृद्धि है जबकि उसके द्वारा घुटनों के बल चलना, फिर पैरों के बल चलना तथा बाद में साईकिल चलाने की योग्यता अर्जित करना वृद्धि के साथ-साथ विकास भी है। दूसरे शब्दों में कहें तो- वृद्धि का तात्पर्य शारीरिक परिवर्तनों से हैं, जबकि शिशु में साचने की क्षमता का विकास, लोगों के साथ संबंध स्थापित करने का कौशल, भावनाओं को समझना और उनपर नियंत्रण करना, भाषा के विकास क्रम में शब्दों के बाद धीरे धीरे वाक्यं संरचना की योग्य बन्ना विकास होता है।

समय के साथ-साथ शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, संज्ञानात्मक, भाषागत एवं व्यवहार संबंधी परिवर्तनों तथा जीवन की मांग के अनुसार स्वयं को ढालने के सुव्यवस्थित परिवर्तनों को विकास कहते हैं। फिर भी हम कह सकते हैं कि वृद्धि व्यक्ति विभिन्न पक्षों जैसे कि- कद, भार एवं आकार की मात्रात्मक बढ़ोतरी है जबकि विकास मात्रात्मक तथा गुणात्मक दोनों पक्षों में बढ़ोतरी से सम्बन्धित है।

वृद्धि एवं विकास में अन्तर Difference Between Growth and Development)

(वृद्धि)

(i) वृद्धि मात्रात्मक (quantitative) होती है।
(ii) वृद्धि शारीरिक ऊँचाई, भार व विभिन्न अंगों जैसे- मस्तिष्क के आकार व संरचना में बढ़ोत्तरी से संबंधित है।
(iii) वृद्धि एक निश्चित अवधि तक होती है।
(iv) वृद्धि को देखा, मापा व तोला जा सकता है। जैसे- शारीरिक लम्बाई व भार में वृद्धि तथा दांतों का निकलना आदि।
(v) वृद्धि व्यक्तित्व के एक आयाम अर्थात् मुख्यता शारीरिक सरंचना से सम्बन्धित है।
(vi) इसका क्षेत्र संकुचित है।

(विकास)

(i) विकास मात्रात्मक व गुणात्मक (quantitative and qualitative) दोनों रूपों में होता है।
(ii) इसमें शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक, मानसिक व संवेदात्मक परिवर्तनों का भी समावेश होता है।
(iii) विकास जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है।
(iv) विकास का अवलोकन व्यक्ति के परिपक्व व्यवहार द्वारा ही किया जा सक है।
(v) विकास व्यक्तित्व के सभी आयामों को दर्शाता है, क्योंकि यह शारीरिक संरचना के साथ-साथ कार्यात्मकता भी दर्शाता है।
(vi) इसका क्षेत्र विस्तृत है।
वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त (Principles of Growth and Development)

(1) विकास का एक निश्चित क्रम होता है (Development Occurs in Specific/Predetermined Pattern) : सभी शिशुओं में विकास एक निश्चित क्रम में दो प्रकार से होता है-

(a) मस्तकाधोमुखी विकास (Cephalocaudal Sequence) : इस क्रम में विकास सदैव सिर से शुरू होकर पैर की तरफ होता है। इसी कारण गर्भावस्था में पहले भ्रूण के सिर का, फिर धड़ का तथा आखिर में पैरों का विकास होता है। इसलिए जन्म के समय नवजात का धड़ उसके सिर के अनुपात में छोटा होता है।

(b) निकट से दूर दिशा में विकास (Proximodistal Sequence) : इस क्रम में शारीरिक विकास शरीर के केन्द्रीय भागों से शुरू होकर आगे की ओर होता है। जैसे कि पहले हृदय तथा पेट, फिर कंधे, बाजू और फिर हाथ विकसित होते है। इसी कारण बच्चा पहले बैठना, फिर खड़ा होना तथा बाद में चलना सीखता हैं।

(2) विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है (Development is a Continuous Process) : विकास जीवनभर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जिसकी गति कभी धीमी तो कभी तेज तो हो सकती है परन्तु रुकती नहीं।

(3) विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है (Development is Always from General to Specific) : बच्चों में पहले सामान्य योग्यताओं का विकास होता है और फिर धीरे-धीरे विशिष्टताओं का विकास होता है। जैसे कि- किसी वस्तु को पकड़ने के लिए बच्चा पहले पूरे हाथ का इस्तेमाल करता है, आयु में वृद्धि के साथ-साथ वह उंगलियों का प्रयोग करना सीख जाता है, क्योंकि छोटी मांसपेशियों (finer muscle co-ordination) का विकास अधिक समय लेता है।

(4) विकास की सभी अवस्थाएँ समान होती हैं (Everyone Passes Through Every Stage of Development) : प्रत्येक बालक के लिए विकास की सभी अवस्थाओं का एक जैसा क्रम होता है। जैसे कि- बालक पहले भ्रूणावस्था, शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था से गुजरता है और फिर किशोरावस्था में पदार्पण करता है। कोई भी बालक शैशवावस्था से सीधे किशोरावस्था में नहीं जा सकता।

(5) विभिन्न अंगों के विकास की गति अलग-अलग होती है (Different Body Parts Develop at Different Pace) : शरीर के सभी अंगों के विकास की अपनी अलग गति होती हैं, जैसे कि- किशोरावस्था में हाथों-पैरों का विकास पूर्ण हो जाता है जबकि कंधे अधिक देर से विकसित होते हैं।

(6) जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में वृद्धि एवं विकास की दर भिन्न होती जाती है (Pace of Growth and Development is Different for Every Stage of Life) : वृद्धि एवं विकास की दर प्रारम्भिक बाल्यावस्था व प्रौढ़ावस्था में कुछ कम होती है जबकि भ्रूणावस्था तथा किशोरावस्था में अधिक।

(7) सभी बच्चे अपने विकास की चरम सीमा तक पहुँचते हैं (Everyone Reaches to the Maximum of Development Stage) : बच्चों के विकास की गति अलग-अलग होने के कारण वह जल्दी या देर से अपने विकास की चरम सीमा अवश्य प्राप्त कर लेते हैं।

इस चरम सीमा तक पहुँचने के लिए उचित पोषण, स्वस्थ वातावरण, सही निर्देशन तथा सकारात्मक दृष्टिकोण एवं प्रोत्साहन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विकास के क्षेत्र(Areas of Development) : वैज्ञानिक अध्ययन के उद्देश्य से मनुष्य के जीवनकाल के दौरान होने वाले विकास को निम्नलिखित आयामों में वर्गीकृत किया गया है-

विकास के विभिन्न आयाम

(1) शारीरिक विकास
(2) क्रियात्मक विकास
(3) संवेदनात्मक विकास
(4) संज्ञानात्मक विकास
(5) भाषा संबंधी विकास
(6) सामाजिक विकास
(7) भावनात्मक विकास
(8) व्यक्तिगत विकास
(1) शारीरिक विकास (Physical Development) : गर्भधारण के समय से लेकर जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में शरीर के विभिन्न अंगों जैसे कि – हड्डियों, माँसपेशियों आदि के बढ़ने को शारीरिक विकास कहते हैं। दूसरों शब्दों में कहें तो शरीर की संरचना तथा अनुपात (size and proportion) में भौतिक परिवर्तिनों को शारीरिक विकास कहते है।

(2) क्रियात्मक (मोटर) विकास (Motor Development) : माँसपेशियों तथा नाड़ियों की परिपक्वता के अनुरूप शिशु द्वारा विभिन्न कार्य करने की क्षमता अर्जित करने को क्रियात्मक विकास कहते हैं। दूसरों शब्दों में कहें तो- क्रियात्मक विकास का तात्पर्य शारीरिक गतिविधियों पर नियंत्रण से है, जिसके कारण शरीर के विभिन्न भागों के बीच समन्वयन बेहतर होता जाता है। क्रियात्मक विकास दो प्रकार के होते हैं-

(a) स्थूल क्रियात्मक विकास (Gross Motor Development) : स्थूल क्रियात्मक विकास का तात्पर्य शरीर की बड़ी मांसपेशियों की गतिविधियों पर नियंत्रण से है; जैसे कि- कंधे, जांघों, पेट, उदर तथा पीठ की पेशियों की गतिविधियाँ, आदि। स्थूल क्रियात्मक विकास के परिणामस्वरूप ही हम बैठ सकते हैं, झुक सकते हैं, चल सकते हैं तथा अपनी बाहों को हिला सकते हैं।

(b) सूक्ष्म क्रियात्मक विकास (Fine Motor Development) : सूक्ष्म क्रियात्मक विकास का तात्पर्य शरीर की छोटी पेशियों पर नियंत्रण से है; जैसे कि- कलाई, अंगुलियाँ या अंगूठे की पेशियाँ। सूक्ष्म क्रियात्मक विकास के परिणामस्वरूप, हम लिख सकते हैं, पुस्तक के पन्ने पलट सकते हैं, सिलाई तथा बुनाई इत्यादि कर सकते हैं।

(3) संवेदनात्मक विकास (Sensory Development) : संवेदी क्षमताएँ जैसे कि देखने, सुनने, सूँघने, स्पर्श करने तथा स्वाद महसूस करने की क्षमताओं के विकास को संवेदनात्मक विकास कहते है। जन्म के समय से ही शिशु की संवेदनात्मक क्षमताएँ पर्याप्त रूप से विकसित होती हैं जो आयु बढ़ने के साथ-साथ और अधिक कुशल तथा विकसित होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, जन्म के तुरंत बाद बच्चा अपनी माँ के स्पर्श को पहचानने लगता है और मीठे तथा कड़वे स्वाद के प्रतिक्रिया करता है।

(4) संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) : शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक सोचने, समझने, याद रखने, समझदारी जैसी ” मानसिक प्रक्रियाओं के विकास को संज्ञानात्मक विकास कहते हैं। आयु के बढ़ने के साथ-साथ बच्चे की सोचने-समझने की क्षमताओं के गुणात्मक परिवर्तन आते है तथा बच्चा धीरे-धीरे जटिल मानसिक क्रियाएँ जैसे कि – याद रखना, तर्क करना, कल्पना करना इत्यादि सीखने लगता है।

उदाहरण के लिए, एक शिशु के सामने से उसका खेलना वाला झुनझुना उठा लिया जाए तो वह उसे भूल जाता है परन्तु 1½-2 वर्ष का बच्चा अपने खिलौने को ढूढने लगता है। इसे वस्तु के स्थायित्व प्रत्यय का निर्माण अर्थात् (object permanence development) कहते है।

(5) भाषा का विकास (Language Development) : अर्थपूर्ण ध्वनियों और वाक्यों का उचित संयोजन ही भाषा संबंधी विकास कहलाता है। भाषा संबंधी विकास को उन परिवर्तनों के रूप में भी समझा जा सकता है जिनके कारण शिशु आयु बढ़ने के अनुरूप दूसरों की भाषा समझने तथा जटिल वाक्यों को बोलने में सक्षम होता जाता है।

(6) सामाजिक विकास (Social Development) : वह प्रक्रिया जिसके द्वारा शिशु समाज के नियमों व सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार अपने व्यवहार को ढालने की चेष्टा करता है, सामाजिक विकास कहलाता है। सामाजिक विकास के कारण ही व्यक्ति समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप व्यवहार करने, लोगों के साथ संबंधों का निर्माण करने तथा उन्हें बनाए रखने के योग्यं बन पाता हैं।

(7) भावनात्मक विकास (Emotional Development) : अपनी सुखद या दुखद भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए उन्हें समाज द्वारा वांछित तथा अपेक्षित रूप से अर्थात् सर्व-स्वीकार्य ढ़ंग से अभिव्यक्त (express) करना भावनात्मक विकास कहलाता है। भावनात्मक विकास, शारीरिक तथा मानसिक विकास के परिणामस्वरूप होने वाला विकास है।

(8) व्यक्तिगत विकास (Personal Development) : व्यक्तिगत विकास का तात्पर्य स्वयं से है अर्थात् अपने व्यक्तिगत विचारों के विकास से है, जैसे कि- मैं कौन हूँ? मुझमें कौन कौन से व्यक्तिगत गुण तथा कौशल हैं, मेरी भविष्य के लिए क्या आकांक्षाएँ हैं? इत्यादि।
संतुलित आहार (Balanced Diet)

विभिन्न खाद्य पदार्थों के मिश्रण से बना ऐसा आहार जो शरीर की पौष्टिक आवश्यकताओं के अनुरूप सभी पौष्टिक तत्व उपलब्ध कराए, संतुलित आहार कहलाता है।
प्रत्येक व्यक्ति की वृद्धि तथा विकास में संतुलित आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जैसे-जैसे बच्चा विद्यालय जाने की आयु तक पहुँचता है, उसकी आहार-संबंधी आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। आमतौर पर लड़कों तथा लड़कियों की आहार संबंधी आश्यकताएँ 9 वर्ष की आयु तक एक समान रहती हैं। 10 वर्ष की आयु पूरी कर लेने के पश्चात्, लड़कों तथा लड़कियों की आहार संबंधी आवश्यकताओं में अन्तर आता शुरू हो जाता है।

वैसे तो, बाल्यावस्था की सम्पूर्ण अवधि को विभिन्न चरणों में वर्गीकृत करने के कई तरीके है। उनमें से वर्गीकरण का एक तरीका है-

बाल्यावस्था की आहार संबंधी आवश्यकताओं के आधार पर वर्गीकरण । वर्गीकरण का यह तरीका भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (आई. सी.एम.आर.) द्वारा सुझाया गया है तथा इसमें वर्गीकरण निम्नलिखित तीन चरणों में किया जाता है-

शैशवावस्था (Infancy) : जन्म से 6 माह, तथा 6-12 माह तक।
पूर्व विद्यालयी वर्ष (Pre-school Years) : 1-3 वर्ष तक तथा 4-6 वर्ष तक।
विद्यालयी वर्ष (School Years) : 7-9 वर्ष तक तथा 10-12 वर्ष तक।
वृद्धि तथा स्वास्थ्य में संबंध (Relationship Between Growth and Health)

हम सभी जानते हैं कि बच्चों का सामान्य रूप से वृद्धि करना उसके अच्छे स्वास्थ्य का एक प्रमुख द्योतक (indicator) है। किंतु केवल सामान्य वृद्धि ही बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य के पूर्वानुमान के लिए पर्याप्त नहीं है। एक बच्चा स्वस्थ रूप से विकसित हो पाएगा या नहीं इसका पूर्वानुमान लगाने के लिए कुछ संसाधनों की तथा स्थितियों की उपस्थिति अनिवार्य होती है, जैसे कि-

(i) बच्चे के लिए पर्याप्त स्तनपान की व्यवस्था,
(ii) सुरक्षित, स्वच्छ तथा स्वस्थ वातावरण,
(iii) बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ,
(iv) माताओं द्वारा धूम्रपान तथा शराब के सेवन जैसी आदतों से परहेज करना ।

दूसरे शब्दों में कहें तो, बच्चे द्वारा स्वास्थ्य संबंधी सभी कार्यात्मक क्षमताएँ (functional capacities) अर्जित करने के लिए सामान्य वृद्धि तो केवल एक प्रकार की अनिवार्य स्थिति है (Not enough alone but only on of the necessary conditions)। इसके अतिरिक्त उपरोक्त स्थितियाँ भी अनिवार्य होती है।

विभिन्न अनुसंधान यह दर्शाते है कि- जीवनकाल के पहले पाँच वर्षों तक सभी बच्चे लगभग एक समान रूप से ही बढ़ते हैं, क्योंकि इस अवधि के दौरान लगभग सभी बच्चे एक ऐसे सुरक्षित तथा स्वस्थ वातावरण में रहते है जहाँ उनकी सभी आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो जाती है।

संभवत: इसी कारण से समृद्ध तथा शिक्षित भारतीय परिवारों के बच्चों की वृद्धि विकसित देशों के बच्चों के समान ही होती है। हालांकि उसके बाद अर्थात् पाँच वर्ष की आयु के बाद किसी प्रकार के संक्रमण या असंतुलित अथवा अपर्याप्त आहार के कारण बच्चों की वृद्धि में रूकावट या धीमापन आ सकता है।

वैश्विक स्तर पर बच्चों की वृद्धि को जाँचने अथवा उसकी निगरानी (Monitoring) के लिए वृद्धि चार्टों (growth charts) का व्यापक प्रयोग किया जाता है। सामान्य वृद्धि वक्र लम्बवत दिशा में बढ़ता है (Normal growth curve has an upward direction), जबकि किसी प्रकार की गड़बडी होने पर वृद्धि वक्र में व्यवधान आता है तथा वृद्धि वक्र समतल या नीचे की दिशा में जाता है, अर्थात्-

(i) वृद्धि वक्र का समतल (flat) होना यह दर्शाता है कि वृद्धि रूक चुकी है अर्थात् थम चुकी है।
(ii) वृद्धि वक्र का ऊपर की ओर बढ़ना (upward direction) यह दर्शाता है कि वृद्धि निरंतर रूप से जारी है।
(iii) वृद्धि वक्र का नीचे गिरना (downward direction) यह दर्शाता है कि बच्चे की वृद्धि अपने सामान्य मानकों से पिछड़ रही है।
विकास की अवस्थाएँ (Stages in Development)

बाल-विकास को और बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं के विषय में समझना जरूरी है, जिन्हें विकास की उपलब्धियों (मील के पत्थरों- milestone of development) के आधार पर विभिन्न अवस्थाओं में वर्गीकृत किया गया है।

‘मील के पत्थर’ का तात्पर्य उन विशिष्ट क्षमताओं/कार्यों अथवा कौशलों से है जो अधिकांश बच्चे किसी एक विशिष्ट आयु सीमा (within a specific age range) में अर्जित कर लेते हैं।

मील के पत्थरों का प्रयोग यह आकलन करने के लिए किया जाता है कि किसी बच्चे का विकास उसकी आयु के अनुरूप है या नहीं। इन्हें विकास के मानदंड (norns of development) भी कहा जाता है। मानव जीवन अवधि को निम्न पाँच अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है-

मानव जीवन अवधि की विभिन्न अवस्थाएँ

(i) शैशवावस्था (जन्म से 2 वर्ष तक)
(ii) आरंभिक बाल्यावस्था/पूर्व – विद्यालयी ((2-6 वर्ष तक))
(iii) मध्य बाल्यावस्था (6-11 वर्ष तक)
(iv) किशोरावस्था (11-18 वर्ष तक)
(v) प्रौढ़ावस्था (18 वर्ष तथा उससे अधिक)

उपरोक्त अवस्थाओं के विभिन्न पहलुओं या क्षेत्रों का विकास के अध्ययन से पहले हम बच्चे के जन्म के पहले माह का संक्षेप में अध्ययने करेंगे, क्योंकि यह भी एक बहुत ही विशिष्ट अवस्था (special stage) होती है।
नवजात (Neonate): नवजात शब्द का प्रयोग उस शिशु के लिए किया जाता है जो अपने जीवन के प्रथम माह में होता है।
वैसे तो, सभी नवजात शिशु पूरी तरह से वयस्कों पर ही निर्भर होते हैं, परंतु उनमें ऐसी अनेक क्षमताएँ होती हैं जो उन्हें उनके वातावरण के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करने में सहायता करती हैं। वास्तव में नवजात शिशु हमारी कल्पना से कहीं अधिक सचेत होते हैं।

1. प्रतिवर्ती क्रियाएँ / प्रतिक्रियाएँ (Reflexes) : नवजात शिशुओं में जन्म के समय ही कुछ प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती हैं जो उन्हें उस समय तक जीवित रहने तथा उसे अनुकूलित करने में सहायता करती है जब तक कि उनकी क्रियात्मक क्षमताएँ (motor capacities) का विकास नहीं हो जाता।

नवजात शिशु जन्म के समय स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकते परंतु कुछ उद्दीपनों के फलस्वरूप सामान्य प्रतिवर्ती क्रियाएँ करते है, जैसे कि-

(i) पलक को झपकाना।
(ii) जब कोई चीज़ आँख को छूती है तो आँखें अपने आप ही पलक को झपका लेती हैं। आंखों का झपकाना (iii) एक प्रकार का प्रतिवर्त ही है।
(iv) चूसने का प्रतिवर्त (sucking reflex) जो स्तनपान में सहायक होता है,
(v) निष्कासन का प्रतिवर्त (elimination reflex) जो मूत्र तथा मल त्यागने में सहायता करता है।

2. संवेदनात्मक क्षमताएँ (Sensory Capabilities) : जन्म के समय दृष्टि (vision) सबसे अधिक विकसित संवेद होती है। नवजात शिशु तेज रोशनी के सम्पर्क में आने पर आँख झपका देता है।

(i) जन्म के समय दृष्टि (vision) सबसे अधिक विकसित संवेद होती है। नवजात शिशु तेज रोशनी के सम्पर्क में आने पर आँख झपका कर दृष्टि होने का संकेत देता है।

(ii) नवजात शिशु किसी गतिशील वस्तु का पीछा अपनी आँखों से कर सकते हैं। उसका संकेन्द्रण (focus) सबसे बेहतर तब होता है जब कोई वस्तु/व्यक्ति उनके चेहरे से लगभग 8 इंच की दूरी पर होती है। नवजात शिशुओं में मानव चेहरे पर दृष्टि केन्द्रित (focus) करने की जन्मजात क्षमता होती है।

(iii) नवजात शिशु ध्वनि के प्रति अनुक्रिया करते हैं तथा किसी भी अन्य ध्वनि की अपेक्षा वे मानव ध्वनि के प्रति सबसे अधिक अनुक्रियाशील (responsive) होते हैं।

(iv) नवजात शिशु में मूल स्वादों, जैसे कि- खट्टा मीठा, कड़वा तथा नमकीन इत्यादि के बीच अंतर कर सकते हैं। नवजात शिशु स्पर्श के प्रति भी अनुक्रियाशील होते हैं।

(v) नवजात शिशु सुगंध एवं दुर्गन्ध के बीच अंतर कर सकते है, जैसे कि- शिशु अपना चेहरा दुर्गंध से परे हटाकर अनुक्रिया दर्शात हैं।

(vi) नवजात शिशु दिन में लगभग 16-18 घंटे सोते हैं और जब वे जागे हुए और सचेत होते हैं उस दौरान वे अपने आस-पास देखते रहते हैं तथा भी उनकी देखभाल करने वाले उनके साथ बातचीत करते हैं तो वे इसे पसंद करते हैं।

(vii) नवजात शिशु रोकर अपनी आवश्यकताओं को बताने की चेष्टा करते हैं। नवजात शिशु का रोना उसकी भूख, गुस्से, दर्द या असहजता का संकेत होता है। आमतौर पर देखभाल करने वाले व्यक्ति (विशेषकर माँ) शिशु के रोने के कारणों को समझने में समर्थ होते हैं।
विभिन्न चरणों में विकास (Development Across Stages)

अब हम मानव जीवन अवधि की प्रथम चार अवस्थाओं- शैशवावस्था, आरम्भिक बाल्यावस्था, मध्य बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान विकास के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों के विषय में पढ़ेंगे।

I. शारीरिक विकास (Physical Development)

कद तथा वजन में वृद्धि (Increase in Height and Weight) : कद तथा वजन में सबसे अधिक नाटकीय वृद्धि जन्म से ठीक पहले होती है जब एक कोशिका वाला जीव भ्रूण (foetus) के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो 20 इंच लम्बा तथा वज़न में लगभग 2.5 से 3 कि.ग्रा. का होता है।
शैशवावस्था तीव्रतम वृद्धि की अगली अवधि है। जब तक शिशु छह माह की आयु का होता है, उसका शारीरिक भार दुगुना हो चुका होता है और एक वर्ष का होते-होते शिशु का शारीरिक भार जन्म के समय के भार की तुलना में तीन गुना हो चुका होता है।
अधिकांश शिशुओं का वजन एक वर्ष की आयु में लगभग 8 से 9 कि.ग्रा. के बीच होता है।

II. क्रियात्मक विकास (Motor Development)

स्थूल क्रियात्मक विकास (gross motor development) जैसे कि- हाथों तथा पैरों के प्रयोग की क्षमता का विकास, सूक्ष्म क्रियात्मक विकास (fine motor development) जैसे कि- एक हाथ में गिलास को पकड़ना, लिखने इत्यादि की क्षमता के विकास से पहले होता है।
स्थूल क्रियात्मक विकास की प्रत्येक उपलब्धि विशिष्ट आयु सीमा (specific age range) में प्राप्त की जाती है। यदि कोई बच्चा विशिष्ट आयु सीमा में एक या उससे अधिक उपलब्धियाँ अर्जित करने में असमर्थ रहता है तो यह चिंता का विषय होता है।
III. भाषा का विकास (Language Development)

हर जीव प्रजाति की संप्रेषण के लिए अपनी एक विशिष्ट प्रणाली होती हैं, जैसे कि- मधुमक्खियाँ नृत्य द्वारा दूसरी मधुमक्खियों से संप्रेषण स्थापित करती है, उसी प्रकार विभिन्न प्रजाति के पक्षी भी विशेष प्रकार से चहचहा कर या आवाजे निकाल कर अपनी प्रजाति के अन्य पक्षियों से संप्रेषण करते है।
मनुष्य को छोड़कर सभी जीव प्रजातियों में संचार प्रणाली अंतर्जात (inborn) होती है, दूसरे शब्दों में कहें तो- मनुष्य को छोड़कर किसी भी जीव प्रजाति की संचार प्रणाली पर अनुभवों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

मानव ही एकमात्र ऐसा जीव है जिसमें भाषा सीखने के जन्मजात गुण (inborn characteristic) होते है। मनुष्य में भाषा का विकास काफी हद तक उसके परिवेश (environment) द्वारा प्रभावित होता है तथा जैसे-जैसे मनुष्य के परिवेश का दायरा बढ़ता जाता है वह अनगिनत संख्या में स्वयं उच्चरित किए गए वाक्यों (original/individual sentences) का उच्चारण करने के योग्य होता जाता हैं।

(i) सभी बच्चे, चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों, उनमें भाषा का विकास समान अवस्थाओं में तथा क्रमानुसार ही होता हैं।
(ii) बच्चों द्वारा अपने जीवन के प्रथम वर्ष में (जब वे शब्द बोलने में समर्थ नहीं होते) उच्चरित की जाने वाली ध्वनियाँ, बोलने से पहले की ध्वनियाँ (linguistic sounds) कहलाती हैं। रोना, कूकना तथा बबलाना बोलने से पहले की ध्वनियों के ही उदाहरण हैं।
(iii) आमतौर पर बच्चे पहले साल के अंत तक ही पहला शब्द सीखते हैं। हालांकि इसके बाद उनमें भाषा का विकास तीव्रता से होता है।
(iv) किशोरावस्था तक वे भाषा को परिशुद्ध रूप से बोल सकते हैं जबकि उनकी शब्दावली का विकास जीवनभर चलता रहता है।
पहले दिन से ही बच्चा बोलने से कहीं अधिक समझ सकता है। बच्चों में अभिव्यक्त भाषा (expressive language) से पहले ग्रहणशील भाषा (receptive language) की क्षमता पैदा होती है।
भाषा के विकास की अवस्थाएँ (Stages in Development of Language)

(i) रोना (Crying) बच्चों के संप्रेषण का सबसे पहला स्वरूप होता है। रोना जन्मजात प्रतिवर्त (inborn reflex) होता है अर्थात् बच्चे को रोना सिखाने की आवश्यकता नहीं होती। जन्म के पहले महीने में रोना ही एकमात्र ध्वनि होती है जो शिशु निकाल सकता है। शिशु का रोना वयस्कों में शारीरिक अनुक्रिया उत्पन्न करता है।
जो उन्हें शिशु की तरफ ध्यान देने और उसका कष्ट दूर करने के लिए प्रेरित करता है। बच्चे का रोना अनेक प्रकार की आवश्यकताओं का प्रतीक हो सकता है, जैसे कि- भूख, दर्द, असहजता इत्यादि। हालांकि प्रत्येक परिस्थिति में बच्चे अलग-अलग ढंग से रोते है।

(ii) दूसरे माह तक, बच्चे ‘कूकू करना’ (cooing) शुरू कर देते हैं। यह ध्वनि भी जन्मजात प्रतिवर्त (inborn reflex) ही होती है। शिशु ‘आह’, ‘ऊह’ जैसे स्वर तब निकालते हैं जब वे संतुष्ट या आनंदित महसूस करते हैं। शिशु द्वारा कूकू करने पर उसके माता-पिता अक्सर बोलकर, हँसकर अथवा उस आवाज की नकल कर के प्रतिक्रिया देते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि- माता-पिता बच्चे से बातचीत कर रहे हों।

(iii) छः महीने का होने पर बच्चा बबलाना ( babbling) लगता है। तुतलाना, व्यंजन स्वरों (‘दा’, ‘मा’ या ‘पा’) का संयोजन होता है, जैसे कि- ‘दा-दा’, ‘मा-मा’ इत्यादि । शिशुओं का तुतलाना मानव भाषा की तरह ही प्रतीत होता है। शिशु सभी मानव भाषाओं में निहित सभी ध्वनियाँ निकालने में सक्षम होता है। शिशुओं का तुतलाना भी एक अंतर्जात प्रतिवर्त (inborn reflex) होता है। आयु बढ़ने के अनुरूप शिशु जो ध्वनियाँ सुनता है उन्हें याद रखता है तथा जो ध्वनियाँ नहीं सुनता उन्हें भूल जाता है।

(iv) इसी कारण से हर शिशु चाहे किसी भी प्रकार की भाषा बोलने वाले परिवार से संबंध रखता हो पहले तुतलाता ही और फिर धीरे-धीरे अपने आस-पास के लोगों के द्वारा बोले जाने वाली भाषा को सीखता जाता है, फिर चाहे वह भाषा हिन्दी हो, पंजाबी हो, अंग्रेजी हो, अरबी हो या कोई भी अन्य भाषा हो। इससे यह सिद्ध होता है कि शिशु का परिवेश उसके भाषा सीखने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

(v) शिशु अपने पहले शब्द का उच्चारण, अपने पहले जन्मदिन के आस-पास करता है। शिशु उस शब्द का प्रयोग बार-बार एक ही तात्पर्य के लिए करते है। शिशुओं के पहले शब्द संक्षिप्त होते हैं, जिनमें एक या दो वर्ण ही होते हैं, जैसे कि- पा-पा, मा-मा, टा-टा, बाय-बाय इत्यादि।

(vi) 18 माह की आयु तक बच्चा लगभग दो दर्जन शब्द बोलने लगता है। इस समय तक वह आसान आदेश तथा कई और शब्द भी समझने लगता है।

(vii) दो वर्ष की आयु तक बच्चा लगभग 250 शब्द सीख लेता है तथा उसके पश्चात् प्रत्येक वर्ष इनमें अनगिनत शब्द जुड़ते जाते हैं।

(viii) दो वर्ष का होते-होते तक बच्चा दो शब्द वाले वाक्य बोलने के लिए शब्द जोड़ना शुरू कर देता है। एक या दो-शब्दों के उच्चारण द्वारा बच्चे उन सम्पूर्ण अर्थों को अभिव्यक्त करते हैं जो पूरे वाक्य में निहित होते हैं। जैसे कि जब एक दो वर्षीय बच्चा अपनी माँ को देख कर ‘मम्मा’ शब्द का उच्चारण करता है तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि ‘मैं मम्मा के पास जाना चाहता हूँ’ या ‘मेरी मम्मा वहाँ हैं’ या ऐसा ही कोई अन्य अर्थ। ऐसे एक या दो शब्द वाले वाक्य, जो संपूर्ण अर्थ अभिव्यक्त करते हैं, टेलीग्राफिक भाषा (telegraphic language) कहलाते है।

चार वर्ष की आयु तक बच्चों में भाषा का विकास काफ़ी सुव्यवस्थित हो जाता है। इस आयु वर्ग के बच्चे लंबी बातचीत कर सकते हैं, प्रश्न पूछ सकते हैं तथा बारी-बारी से बातचीत भी कर सकते हैं।
6 वर्ष की आयु तक के बच्चों की शब्दावली में लगभग 10,000 शब्द शामिल हो जाते हैं।
7 से 9 वर्ष तक की आयु के बच्चे समझने लग जाते हैं कि शब्दों के अनेक अर्थ भी हो सकते हैं तथा वे ऐसे चुटकलों तथा पहेलियों का आनंद लेने लगते हैं जो भाषा पर आधारित होते हैं।
IV. सामाजिक- भावात्मक विकास (Socio- emotional Development)

आरंभिक संबंध तथा मनोभाव (The Early Relationships and Emotions): अधिकांश परिवारों में नवजात शिशु का पहला सम्पर्क स्पर्श के द्वारा उसकी माँ के साथ ही होता हैं। माँ की अनुपस्थिति में अन्य जो भी व्यक्ति बच्चे की देखभाल करता है बच्चा उनके साथ भी सामाजिक तथा भावनात्मक लगाव स्थापित कर लेता है।

(i) अपनत्व की भावना का विकास (Forming Attachments) :

• शिशुओं में शारीरिक संपर्क की जन्मजात आवश्यकता (inborn requirement) होती है और शिशुओं की यह आवश्यकता उनकी माँ या देखभालकर्त्ता (caregivers) द्वारा पूरी की जाती है। माँ या देखभालकर्त्ता ही शिशु को दिन में कई बार विभिन्न उद्देश्यों से तथा मानसिक आनंद के लिए उठाते है। इससे शिशुओं में माँ / देखभालकर्त्ता के प्रति अपना अपनत्व का भाव विकसित होता है।

• घर के सदस्य शिशुओं के साथ खेलते समय एक विशेष प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, जिसे मदरीज़/माता समान (motherese) कहा जाता है। इस प्रकार की भाषा में बहुत ही छोटे वाक्य, साधारण शब्द या विभिन्न प्रकार की आवाजों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार की भाषा बच्चों को आकर्षित करती है जिसकी प्रतिक्रिया में बच्चा कूकता या तुतलाता (cooing and babbling) है।

• जब माँ/देखभालकर्त्ता शिशु को देख कर मुस्कराते हैं तब शिशु भी उन्हें देखकर मुस्कराता, कूकू करता तथा तुतलाता है।

• माँ/देखभालकर्त्ता द्वारा शिशु को नियमित तथा निरंतर रूप से देखने से उसके तथा शिशु के बीच एक संचार सा स्थापित हो जाता है। एक-दूसरे को पारस्परिक रूप से देखना सामाजिक-भावात्मक परस्पर क्रियाओं का प्रथम स्वरूप (first form of socio-emotional interactions) होता है।

• देखभालकर्त्ता द्वारा शिशुओं के साथ पारस्परिक क्रियाओं (interactions) के दौरान नियमित रूप से विभिन्न प्रकार के हाव-भाव का प्रयोग करने से शिशु धीरे-धीरे विभिन्न भावात्मक अभिव्यक्तियों में अंतर करना सीखते जाते है।

• शिशुओं के साथ पारस्परिक क्रियाओं (interactions) के दौरान अक्सर देखभालकर्त्ता विभिन्न प्रकार की लयात्मक क्रियाएँ भी करते हैं, जैसे कि- सिर को हिलाना, इधर-उधर झटकना तथा उसे आगे की ओर झुकाना इत्यादि । इस प्रकार की क्रियाएँ भी शिशुओं को सुखद एहसास प्रदान करती है।

• शिशुओं के थोड़ा बड़ा होने पर उनकी माँ, भाई-बहन तथा घर के अन्य सदस्य शिशु के साथ विभिन्न प्रकार के सरल खेल भी खेलते हैं, जैसे कि- लुकाछिपी (peek a boo)। शिशुओं के साथ खेले जाने वाला यह खेल सभी संस्कृतियों में समान (common) है।

• जिस प्रकार देखभालकर्त्ता शिशु के साथ संचार करते हैं, उसी प्रकार शिशु भी सामाजिक संपर्क बनाने के लिए व्यवहार करना शुरू कर देते हैं। जब शिशु असहज होने पर चिल्लाता या रोता हैं तो देखभालकर्त्ता तुरंत उसकी ओर आते है, और जब शिशु देखभालकर्त्ता को देखकर कूकू करते, कुलबुलाते, मुस्कराते या निहारते हैं तो उनके इस व्यवहार से देखभालकर्त्ता में भी संरक्षणात्मक भावना (sense of being protective) जागृत हो जाती है।

• देखभालकर्त्ता तथा शिशुओं के बीच उपरोक्त व्यवहार दिन में कई बार दोहराए जाते हैं। इससे दोनों के बीच एक भावनात्मक बंधन विकसित हो जाते है। अधिकांश भारतीय परिवारों में माँ ही मुख्य रूप से बच्चे की देखभाल करती है, इसलिए शिशु का लगाव आमतौर पर सबसे पहले अपनी माँ के साथ ही होता है। माता के साथ शिशु का संबंध, शिशु का पहला सामाजिक रिश्ता होता है।

• यदि माँ/देखभालकर्त्ता के साथ शिशु की परस्पर क्रिया उत्साहपूर्ण तथा सुखद न हो तो शिशु अक्सर चिड़चिड़े तथा व्यग्र हो जाते है। ऐसी स्थिति में शिशु की शारीरिक आवश्यकताएँ तो पूरी हो जाती हैं, परंतु उसके देखभालकर्त्ता के साथ भावात्मक संबंध प्रभावित होते है अर्थात् शिशु देखभालकर्त्ता के साथ समुचित लगाव की भावना का निर्माण नहीं कर पाता। हालांकि मनुष्य में अनुभवों से उबरने का गुण होता है इसलिए यदि शिशु का परिवेश सुधर जाए तथा उसे पर्याप्त प्यार तथा सुपोषण देने वाले देखभालकर्त्ता मिल जाएँ तो वे शुरूआती उपेक्षाओं के अनुभवों से जल्दी उबर जाते हैं।

• शिशुओं में विश्वास की भावना (feeling of trust) का विकास करने के लिए उनके साथ स्नेहपूर्ण तथा सुरक्षित संबंध का निर्माण करना बहुत ही महत्वपूर्ण विकासात्मक कार्य होता है। स्वयं को सुरक्षित महसूस करने वाला शिशु-

(i) कम रोता है,
(ii) देखभाल करने वालों के साथ अधिक सहयोग करता है,
(iii) हर समय डर कर देखभाल करने वालों से चिपका नहीं रहता,
(iv) अपने परिवेश को समझने के लिए हमेशा तत्पर रहता है,
(v) पूर्व विद्यालयी वर्षों के दौरान, भावनात्मक रूप से उत्साही, सामाजिक रूप से परिपक्व, हम उम्र बच्चों में लोकप्रिय, जिज्ञासु तथा अधिक आत्मनिर्भर होता है।

पिता के साथ जुड़ाव (Bonding with Father) : पारंपरिक भारतीय परिवारों में पिता को परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला तथा धन कमाने वाला सदस्य माना जाता है। परिवार के लिए धन कमाने के उद्देश्य से पिता को दिन का अधिकतर समय घर से बाहर बिताना पड़ता है, जबकि माँ बच्चों के साथ अधिक समय बिताती है।

परंतु इसका यह मतलब कतई भी नहीं कि शिशु का अपने पिता के साथ लगाव नहीं होगा। विभिन्न शोध कार्य दर्शाते है कि अपनत्व की भावना का निर्माण वयस्क द्वारा बच्चे के साथ बिताए गए समय की मात्रा पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह उन दोनों द्वारा एक साथ बिताए गए समय के दौरान बच्चे के प्रति वयस्क के व्यवहार और बच्चे की प्रतिक्रियाओं से निर्मित होता है (it is not the amount of time spent with the child that helps information of the bond but what the adults do with the child in the time they spend together)। दूसरे शब्दों में कहें तो यह दोनों के बीच बिताए गए समय की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। देखभाल करने वालों द्वारा बच्चे के साथ बिताए गए समय की गुणवत्ता, उन दोनों के बीच लगाव का निर्धारण करती है।

बच्चे शुरूआत में एक या दो लोगों (आमतौर पर माता-पिता) के साथ प्रथम सशक्त संबंध स्थापित करने के पश्चात् परिवार में अन्य लोगों के साथ भी संबंधों का निर्माण करते है, विशेषकर उन लोगों के साथ जो बच्चों के साथ नियमित रूप से पारस्परिक क्रियाएँ करते रहते है। यदि बच्चा किसी “डे केयर सेंटर” में जाता है जहाँ उसकी अच्छी तरह से देखभाल होती है जिसमें सामाजिक पारस्परिक क्रिया, खेलना तथा आराम करना शामिल है, तो बच्चा वहाँ भी अपने देखभालकत्ताओं (caregivers) के साथ सकारात्मक संबंध बना लेता है।

(ii) बच्चों की भावनाएँ/बाल मनोभाव (Children’s Emotions) :

• छोटे बच्चे विभिन्न प्रकार की भावनाओं का अनुभव करते हैं, जैसे कि- प्रसन्नता, दु:ख, परेशानी, क्रोध इत्यादि। फिर धीरे-धीरे उनके ये भाव प्रसन्नता, रुचि, उत्तेजना, दुख, अस्वीकरण तथा भय इत्यादि के रूप में वर्गीकृत हो जाते हैं।

• लगभग छह माह का शिशु, अनजान लोगों को देखकर भय का भाव दर्शाता है तथा कई बार उनके पास आने पर रोने भी लगता है। इसे ‘अजनबी को देखने पर होने वाला तनाव’ (stranger anxiety) भी कहा जाता है। फिर धीरे-धीरे शिशु में अनजान चेहरों से एक बार डर जाने के बाद उन्हें पहचानने की क्षमता विकसित हो जाती है। शिशुओं में अनजान लोगों के प्रति परेशानी का यह भाव 8 से 12 माह की आयु के आस-पास अपने चरम पर होता है तथा 15-18 माह की आयु में यह भाव धीरे-धीरे लुप्त हो जाती है।

• अजनबी को देखने पर उत्सुकता/डर के भाव उभरने के कुछ समय पश्चात् शिशुओं में अपने देखभालकर्त्ता या उन लोगों से बिछुड़ जाने का भय विकसित हो जाता है जिनके साथ उसका लगाव है। इसे ‘बिछुड़ने की चिंता’ (separation anxiety) कहा जाता है।

उदाहरण के लिए, शिशु उस समय बहुत परेशान हो जाते हैं जब उनकी माँ उनकी दृष्टि से ओझल हो जाती हैं। शिशुओं में अपनो से बिछुड़ने का भय 12 से 18 माह की आयु के दौरान अपने चरम पर होता है तथा लगभग 20-24 माह की आयु में दूर हो जाता है। सभी बच्चे एक जैसी परिस्थिति में एक समान प्रतिक्रिया नहीं देते। बच्चों की प्रतिक्रिया में भिन्नता उनके पूर्व अनुभवों, आदतों तथा उनके आस-पास के अन्य लोगों की प्रकृति से प्रभावित होती है।
माता-पिता द्वारा बच्चों के लालन पालन की विधियाँ (Parent’s Child Rearing Practices)

• माता-पिता या अभिभावकों द्वारा बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करने की प्रक्रिया को बच्चे का लालन-पालन कहा जाता है।
• माता-पिता द्वारा बच्चों के लालन-पालन का तरीका बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालता है।
• बच्चे अपने समाज में उपयुक्त माना जाने वाला व्यवहार मुख्य रूप से अपने माता-पिता तथा अपने आस-पास के लोगों के द्वारा प्रत्यक्ष को उस तरीके से व्यवहार करते हुए देखकर सीखते हैं, इस प्रक्रिया को समाजीकरण (Socialization) कहा जाता है।

वह प्रक्रिया, जिसके द्वारा बच्चे ऐसे व्यवहार, कौशल, मान्यताएँ, धारणाएँ तथा मानक सीखते हैं जो उनकी संस्कृति तथा समाज में उपयुक्त तथा वांछनीय होते हैं, समाजीकरण कहलाता है।

समाजीकरण के लक्ष्य-अर्थात् हम अपने बच्चे को क्या सिखाना चाहते हैं तथा उससे क्या अपेक्षाएँ रखते हैं, प्रत्येक संस्कृति में और यहाँ तक कि हर परिवार में भिन्न-भिन्न होते हैं, जैसे कि- कई परिवारों में भोजन से पहले ईश्वर को धन्यवाद दिया जाता है।

• अभिभावकों द्वारा बच्चों के प्रति दर्शाए जाने वाले उत्साह, प्यार तथा स्नेह की मात्रा में भी भिन्नता होती है।
• माता-पिता में अपने बच्चे के अनेक व्यवहारों के प्रति कितने प्रतिबंधात्मक या अनुमति देने वाले हैं, के आधार पर भी भिन्नता पाई जाती है, जैसे कि-

(i) प्रतिबंधात्मक माता-पिता (restrictive parents), अपने बच्चों पर अनेक प्रकार के नियम तथा बंदीशे लगा देते हैं तथा उनकी सावधानीपूर्वक निगरानी भी करते हैं। जबकि,
(ii) अनुमतिदाता माता-पिता (permissive parents), अपने बच्चों पर बहुत जरूरी नियम ही लगाते हैं तथा अपने बच्चों को अक्सर अपने निर्णय स्वयं करने की स्वतंत्रता भी प्रदान करते हैं।
माता-पिता द्वारा बच्चों के लालन-पालन के लिए प्रयोग किए गए अनुशासनात्मक तकनीकों के आधार पर भी बच्चे की लालन पालन प्रक्रियाओं का वर्गीकरण किया जा सकता है, जैसे कि-

(i) स्नेहोन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण (Affection Oriented Disciplining Approach) : कुछ माता-पिता अपने बच्चों को अनुशासित करने के लिए बच्चों को उनके द्वारा किए गए कार्यों के परिणाम समझाते हैं तथा उनके साथ बातचीत करते हैं ताकि वे अपने बच्चों को अनुपयुक्त कार्य करने से रोक सकें। ऐसे माता-पिता अपने अनुशासन में कठोर होते हुए भी बच्चे के साथ स्नेहमय तथा कोमल व्यवहार करते हैं। जबकि,

(ii) शक्ति उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण (Power Oriented Disciplining Approach) : कुछ माता-पिता, अपने बच्चों को बिना कोई कारण बताए उन्हें किसी विशिष्ट तरीके से व्यवहार करने से रोकने के लिए आदेश देते हैं। इसके लिए वह कई बार बच्चों को धमकी भी देते हैं तथा कई बार शारीरिक दंड का प्रयोग भी करते हैं।

कोई भी माता-पिता या देखभालकर्त्ता बच्चों में उन गुणों को तभी डाल सकते हैं जब वे स्वयं उन्हें अपने आचरण में अपनाएँ। बच्चे को अनुशासित करने के लिए किसी प्रकार के दण्ड (शारीरिक या मानसिक) का प्रयोग नहीं करना चाहिए, बल्कि उनमें वांछनीय व्यवहार विकसित करने के लिए उचित स्पष्टीकरण द्वारा समझाने का प्रयास करना चाहिए। बच्चे के लालन-पालन की यह प्रणाली बच्चे के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
3. भाई-बहनों तथा मित्रमंडली के साथ संबंध (Relationship with Siblings and Peers)

(i) भाई-बहनों के साथ संबंध (Relationship with Siblings) : अधिकांश भारतीय परिवारों में एक से अधिक बच्चे होते हैं तथा कई बड़े परिवारों में, विशेषकर ग्रामीण परिवारों में घर के सबसे बड़े बच्चे को अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करनी पड़ती है। इसलिए भाई-बहन भी काफ़ी हद तक एक-दूसरे के विकास को प्रभावित करते हैं। अपने भाई-बहन के साथ बच्चे के संबंध अपने माता-पिता के साथ संबंधों की अपेक्षा काफी भिन्न होते है, क्योंकि-

• भाई बहनों की आयु में ज़्यादा अंतर नहीं होता है, इसलिए उनके बीच संबंध माता-पिता की तुलना में अधिक समान, मैत्रीपूर्ण तथा बराबरी के होते है।

• भाई-बहनों के बीच सकारात्मक संबंध बच्चों को भावनात्मक समर्थन तथा प्रोत्साहन प्रदान करता है, क्योंकि वे एक-दूसरे के साथ खेलते हैं, उनके साथ अपनी सभी विशेष बातें साझा करते हैं। तथा कई क्रियाकलापों में आपस में साझेदारी भी करते हैं।

• बड़े भाई-बहन, छोटे भाई-बहनों के लिए व्यवहार का एक मानक निर्धारित करते हैं जिसका छोटे भाई/बहन अनुसरण करने का प्रयास करते हैं।

• भाई-बहन के संबंधों में अक्सर परस्पर विरोध, प्रधानता, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता तथा ईर्ष्या भी होती है। ऐसे में माता-पिता उनके बीच के भावनात्मक संबंधों को और अधिक मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

(ii) मित्रमंडली के साथ संबंध (Relationship with Peers) : बच्चा जैसे-जैसे आयु में बढ़ता जाता है, उसके जीवन में मित्रमंडली (समान आयुवर्ग के बच्चों) का महत्त्व भी बढ़ता जाता है। बच्चा अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलता है, लड़ता है तथा विशिष्ट तथा गोपनीय बातें तक साझा करता है। मित्रों के साथ पारस्परिक क्रियाकलापों के कारण भी बच्चे के सामाजिक तथा भावात्मक विकास में वृद्धि होती है।
V. संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development)

मनुष्य में सोचने-समझने की क्षमता के विकास को संज्ञानात्मक विकास कहते है।

“संज्ञान” या सोच-विचार एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य अपने परिवेश को समझता हैं, अर्थात् वह प्रक्रिया जिसमें हम किसी प्रकार की सूचना प्राप्त कर उसकी व्याख्या करते हैं तथा उसके विषय में अपनी राय कायम करते है। सोच-विचार में शामिल विभिन्न मानसिक प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं-

1. हम विभिन्न प्रकार के स्वाद, रंगों, आकारों, सजीव-निर्जीव वस्तुओं में, खाद्य-अखाद्य वस्तुओं इत्यादि के बीच अंतर (can differentiate) कर सकते हैं।

2. हम किसी विशिष्ट भावना को किसी विशिष्ट अनुभव के साथ, किसी व्यक्ति को एक विशिष्ट प्रकार के व्यवहार के साथ, किसी मौसम को किसी विशिष्ट माह के साथ जोड़ सकते (can associate) हैं।

3. हम अधिकतर कार्य किसी उद्देश्य या किसी प्रयोजन हेतु ही करते है। अर्थात् हम जानते हैं कि हमारे कार्यों का कोई या क्या प्रभाव पड़ेगा, दूसरे शब्दों में कहें तो, हम कारण-प्रभाव संबंधों (can understand cause-effect relationship) को समझते हैं।

4. समस्याओं को समाधान करने की क्षमता, उदाहरण के लिए, जब भी हम किसी समस्या के कारण या किसी योजना के प्रभावपूर्ण न होने के कारण अपनी योजना या कार्यशैली में परिवर्तन करते है तो वास्तव में हम समस्याओं के समाधान की क्षमता का प्रदर्शन कर रहे होते है।

5. हम याद रख सकते हैं, अनुकरण कर सकते हैं, वस्तुओं के कारण के बारे में तर्क भी कर सकते हैं।

6. हम वस्तुओं, अनुभवों तथा भावनाओं के बीच संबंधों को समझ सकते हैं।

7. हम किसी काल्पनिक स्थिति के बारे में सोच सकते हैं या तर्क कर सकते हैं इसके अतिरिक्त हम अमूर्त अर्थों में भी सोच सकते हैं अर्थात् ऐसे विचारों तथा स्थितियों के बारे में सोच सकते हैं जिनका असलियत में कोई अस्तित्व ही नहीं होता है।
संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ (Stage of Cognative Development)

मनुष्य के संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन के अंतर्गत उसके जन्म से लेकर जीवनकाल की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान सभी प्रकार की प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे ने शिशु के जन्म के समय से उसकी परिपक्वता तक संज्ञान वर्णन किया है। उनके अनुसार, बच्चों की संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का विकास एक सुव्यवस्थित क्रम में ही होता है। कुछ बच्चे दूसरों की तुलना में विशिष्ट उम्र में अधिक प्रगतिशील हो सकते हैं किंतु विकासात्मक क्रम सामान्यतः भिन्न नहीं होता।

संज्ञानात्मक विकास निम्न चार अवस्थाओं में होता है-

1. संवेदी- क्रियात्मक अवस्था- जन्म से 2 वर्ष की आयु तक (Sensori-Motor Stage)
2. पूर्व-प्रचालनात्मक/संक्रियात्मक अवस्था – 2 से 7 वर्ष तक (Pre-Operational Stage)
3. पूर्णतया प्रचालनात्मक/संक्रियात्मक अवस्था- 7 से 11 वर्ष तक (Concrete Operational Stage)
4. औपचारिक प्रचालनात्मक/अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था- 11 से 16 वर्ष तक (Formal Operational Stage)
1. संवेदी-क्रियात्मक (प्रचालनात्मक) अवस्था (The Sensori-Motor Stage)

संज्ञानात्मक विकास का यह चरण जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक रहता है।

• इस अवधि के दौरान, शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों (senses) तथा अपनी क्रियात्मक क्षमताओं (motor abilites) के माध्यम से अपने आस-पास के परिवेश (environment) को समझने का प्रयास करते हैं। इसी कारण से संज्ञानात्मक विकास की इस अवस्था को संवेदी क्रियात्मक अवस्था कहा जाता है।

• इस अवस्था के दौरान शिशु वस्तु के गुणों से संबंधित सभी संकल्पनाओं से अनभिज्ञ रहते है, अर्थात् इस अवस्था के दौरान शिशु किसी वस्तु को केवल उसके रूप एवं स्पर्श के आधार पर ही समझ पाते हैं न की उस वस्तु के गुणों के आधार पर, जैसे कि- शिशु किसी भी खिलौने को केवल उसी रूप में जानता हैं जैसा कि वह उसे दिखता तथा स्पर्श करने पर महसूस होता हैं (संवेदी सूचना) तथा वह यह भी जानता है कि वह उस खिलौने को इधर-उधर फेंक सकता है या धकेल सकता है, (क्रियात्मक क्रियाएँ)। इस अवस्था के दौरान वह खिलौने को उसकी विशिष्टताओं के आधार पर नहीं समझ पाता अर्थात् वह सख्त है या नर्म, लकड़ी का बना हुआ है या धातु का, छोटा है या बड़ा, हल्का है या भारी इत्यादि।

• बच्चे में चूषण प्रतिवर्त (sucking reflex) सहित अनेक जन्मजात प्रतिवर्त (inborn reflexes) होते हैं।

• दो माह की आयु का होने पर शिशु अपने आस-पास की वस्तुओं में रुचि प्रकट करने लगता है।

• तीन माह की आयु तक शिशु समझने लगता है कि दूसरों की क्रियाओं से क्या संकेत मिलता है, जैसे कि बच्चा स्तनपान के समय माता द्वारा किए जाने वाले विशिष्ट संकेतों तथा क्रियाओं से समझ जाता है कि माता अब उसे स्तनपान कराएगी। शिशु का यह व्यवहार उसकी स्मरण शक्ति को भी दर्शाता हैं।

• 4 – 8 माह की आयु के बीच शिशु में यह समझ आ जाती है कि उसकी क्रियाओं का प्रभाव पड़ता है, जैसे कि- जब वह हवा में अपनी टाँगों से मारता है तो गेंद हिलती है, जब वह कोई वस्तु गिराता है तो आवाज़ होती है। यह कारण प्रभाव संबंधों (reason-effect relations) की शुरूआत है।

• 8 – 12 माह की आयु के बीच, शिशु जानबूझ कर क्रियाएँ (intentional actions) करने लगता है। इस का अर्थ है कि वह समझता कि किस क्रिया का क्या प्रभाव होगा तथा कौन-सी क्रिया किस विशिष्ट स्थिति में उपयुक्त होगी।

• 12 – 18 माह की आयु के बीच, शिशु कार्य करने के विभिन्न तरीकों का प्रयास करता है अर्थात् वह भिन्न परिणामों के लिए अपनी क्रियाओं को परिवर्तित करता है, जैसे कि- शिशु अपने खिलौने को बार-बार फेंक कर यह देखता है कि वह खिलौना कितनी दूर जाता है या हर बार अलग-अलग ऊँचाइयों से फेंकने पर खिलौने की ध्वनि में क्या परिवर्तन होता है।

• 18 – 24 माह की आयु के बीच शिशु मानसिक रूप से घटनाओं, वस्तुओं तथा लोगों को याद करने लगता है अर्थात् वह अपने दिमाग में एक विचार, एक चित्र निरूपित करने में समर्थ हो जाता है। इसे मानसिक निरूपण (mental representation) कहते हैं।
2. पूर्व-संक्रियात्मक (प्रचालनात्मक) अवस्था – 2 से 7 वर्ष तक (Pre-Operational Stage)

इस अवस्था के दौरान बच्चा आरम्भिक संकल्पनाएँ (preliminary concepts) विकसित करना शुरू कर देता है। वह बनावट, स्थान, आकार, समय, दूरी, गति, संख्या, रंगों, क्षेत्र, मात्रा, भार, सजीव, निर्जीव, लंबाई, तापमान आदि के आध उस प्रत्येक वस्तु की, जिसे वह अपने परिवेश में देखता हैं, आरम्भिक संकल्पनाएँ बना लेता है।
एक तीन वर्षीय बच्चा सबसे पहले दो वस्तुओं के संबंध में लम्बी तथा छोटी का विचार (an idea of long and short) बनाकर शुरूआत करता है।

लगभग 4 वर्ष की आयु तक का बच्चा तीन वस्तुएँ दिए जाने पर सबसे लंबी, सबसे छोटी के बारे में समझ सकता है (able to understand longest, shortest and smallest)।

छ-वर्षीय बच्चा अनेक वस्तुओं पर एक ही बार में विचार नहीं कर सकता इसके अतिरिक्त वह वस्तुओं के सापेक्ष आकार (relative size) के बारे में भी नहीं सोच सकता, जैसे कि- यदि किसी छः वर्ष के बच्चे को पाँच अलग-अलग लम्बाई की पेन्सिलें दी जाए और उसे पेन्सिलों को ऊँचाई के बढ़ते क्रम में व्यवस्थित करने के लिए कहा जाए तो, बच्चा ऐसा करते समय भ्रमित हो सकता है। बच्चों में यह सक्षमता मध्य बाल्यावस्था के वर्षों में विकसित होती है।

बच्चों में संख्या की संकल्पना (concept of numbers) एकदम से विकसित नहीं होती एक 3 वर्षीय बच्चा एक से दस तक गिनती का उच्चारण तो कर लेता है किंतु यदि उसे किसी स्थान से छः वस्तुएँ उठाने के लिए कहा जाए तो इस बात की पूरी संभावना है कि वह ऐसा करते समय गलती कर देगा। बच्चों में संख्या की संकल्पना विकसित करने के लिए उनमें पहले अधिक तथा कम, एक तथा अनेक, शून्य तथा अनेक अधिक, कम, समान की संकल्पना विकसित करने का प्रयास करना चाहिए है और फिर धीरे-धीरे तीन, चार, पाँच आदि की गणना सीखानी चाहिए।

इस अवस्था से गुजर रहे बच्चों को विद्यालय पूर्व बच्चे भी कहा जाता है। इस अवस्था में बच्चों के संज्ञानात्मक विकास को बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले हमें अवस्था के नाम अर्थात् ‘पूर्व प्रचालनात्मक’ के अर्थ को समझना चाहिए। संज्ञानात्मक विकास में शब्द ‘प्रचालन’ (operation) का एक विशिष्ट अर्थ है-

‘प्रचालन’ शब्द का तात्पर्य उन मानसिक क्रियाओं से है जिनमें वस्तुएँ परिवर्तित या रूपांतरित होती हैं और फिर पुनः अपने मूल रूप या स्थिति में लाई जा सकती हैं।

उदाहरण के लिए, जब कोई विद्यालय जाने वाला बच्चा या किशोर मिट्टी के गोले को चपटा करता हैं तो वह मानसिक रूप से उसे फिर से मिट्टी के गोले में रूपांतरित कर सकता हैं तथा वह यह भी समझता है कि मिट्टी के गोले के रूप में तथा चपटे रूप में मिट्टी की मात्रा समान ही रहती है। जबकि, विद्यालय पूर्व बच्चे किसी क्रिया को मानसिक रूप से प्रतिवर्तित नहीं कर सकते। विद्यालय पूर्व बच्चे स्थिति में तर्क की अपेक्षा दृश्य/देखने से अधिक प्रभावित होता है।
3. विद्यालय पूर्व आयु के बच्चे की सोच की विशेषताओं (Characteristics of Pre-school Age Child’s Thinking)

(i) संरक्षण बनाए रखना (Conservation) : संरक्षण का तात्पर्य उस स्थिति से है जब किसी पदार्थ का आकार बदलने के बावजूद भी उसकी मात्रा समान ही रहती है, जैसे कि- दो समान लम्बाई तथा चौड़ाई वाले गिलास लेकर दोनों में समान मात्रा में पानी डाला जाता है।

फिर, एक विद्यालय पूर्व बच्चे के सामने इन में से एक गिलास का पानी किसी तीसरे संकरे गिलास में डाल दिया जाता है जिसका आकार पहले दो गिलासों की अपेक्षा अलग होता है। यदि विद्यालय पूर्व किसी बच्चे से यह पूछा जाए कि किस गिलास में अधिक पानी है तो इस बात की पूरी संभावना है कि वह संकरे गिलास को चुनेगा।
ऐसा संभवतः इसलिए क्योंकि उसमें जल का स्तर दूसरे गिलास की अपेक्षा अधिक होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि विद्यालय पूर्व बच्चा अभी अपने विचार को बनाए नहीं रख पाता।

हालांकि, यह भी सत्य है कि बच्चा परिचित स्थितियों में अपना विचार बनाए रख सकता है जबकि अपरिचित स्थितियों में वह भ्रमित हो जाता है, जैसे कि- एक 4 वर्षीय बच्चा जो अपने पिता के साथ प्रतिदिन गायों को पूर्व-निर्धारित मात्रा में चारा खिलाता है उस समय भ्रमित नहीं होगा जब पिता की अनुपस्थिति में केवल उसे ही पूर्व-निर्धारित मात्रा में ही चारा डालना पड़ेगा, क्योंकि उसे यह अनुभव बार-बार होता है। जैसे- जैसे बच्चा 6 – 7 वर्ष की आयु का होने लगता है, वह इस विचार को बनाए रखने में समर्थ हो जाता है।

(ii) क्रमांकन (Seriation) : क्रमांकन का अर्थ है- वस्तुओं को क्रमानुसार रखना, जैसे कि- लंबी से छोटी या इसके उल्टे क्रम में विभिन्न लम्बाइयों की पाँच पेंसिलों को व्यवस्थित करना। उदाहरण के लिए, यदि किसी पूर्व विद्यालयी आयु के बच्चे को पाँचों पेंसिलों को उनकी लम्बाई के अनुसार सही क्रम में रखने को कहा जाए तो वह तीन पेंसिलों तक तो ठीक ढ़ंग से क्रमांकित कर सकता है, चौथी पेंसिल के बारे में थोड़ा संदेहपूर्ण होगा तथा जबकि पाँचवीं पेंसिल के संबंध में विफल रहेगा।

(iii) किसी अन्य व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य/नज़रिए को समझना (Taking Another Person’s Perspective) : इस अवस्था में बच्चा स्थिति के एक ही पहलू पर ध्यान केंद्रित करता है तथा किसी अन्य व्यक्ति के नजरिए से वस्तुओं को समझ या देख नहीं सकता, जैसे कि- यदि किसी गेंद को एक ऐसे स्थान पर छिपा दिया जाए जहाँ से बच्चा उसे नहीं देख सकता परंतु कमरे में किसी अन्य जगह पर खड़ा व्यक्ति उसे देख सकता है तो बच्चा यह नहीं समझ पाता कि दूसरे व्यक्ति को गेंद नज़र आ रही है। पूर्व विद्यालयी बच्चा यह मानकर चलता है कि दूसरे व्यक्ति को भी गेंद नजर आ रही। बच्चे की सोच की इस विशेषता को अहम संकेन्द्रण (egocentrisn) कहा जाता है। यह एक सामान्य अनुक्रिया है, हालांकि पूर्व विद्यालयी आयु के अंत तक बच्चा स्थिति को किसी अन्य व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से समझने में समर्थ हो जाता है।

(iv) जीववाद (Animism) : हर वस्तु (चाहे वह निर्जीव ही क्यों न हो) जीवन होता है समझना, जीववाद कहलाता है। इस अवस्था में बच्चे यह समझते हैं कि प्रत्येक वस्तु में जीवन होता है। इसी कारण से जब हम उन्हें ऐसे पेड़ों तथा बादलों की कहानियाँ सुनाते हैं तो हम जो बोलते हैं, वे उसे सत्य मान लेते हैं। उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बच्चे “ अचानक ही” सोचना आरम्भ नहीं करते। सोच, ज्ञानेन्द्रियों और मस्तिष्क के बढ़ते तालमेल के द्वारा धीरे-धीरे मानसिक कौशलों में कुशलता प्राप्त करने की प्रक्रिया है।
ठोस प्रचालनात्मक अवस्था – 7-11 वर्ष (The Concrete Operational Stage)

• यह अवस्था मध्य बाल्यावस्था के चरण के समरूप होती है।

• इस अवस्था के दौरान बच्चा मानसिक रूप से कार्यों को प्रतिवर्तित कर सकता है (can perform reverse actions)।

• इस अवस्था में बच्चा पूर्व प्रचालनात्मक अवस्था की अपेक्षा में बच्चा एक ही समय में समस्या के बहुत से आयामों या पहलुओं पर खुद को केंद्रित कर सकता है (can focus on multiple aspects of a problem at a same time)।

• इस अवस्था के दौरान बच्चा किसी भी स्थिति में अथवा किसी भी सामग्री के साथ संरक्षण या क्रमांकन कर सकता है (can conserve and seriate)।

• इस अवस्था में बच्चे कम अहम केंद्रित (less ego-centric) होते हैं। इस दौरान वे यह समझने लगते है कि लोग विभिन्न स्थितियों तथा विभिन्न मूल्यों के कारण एक ही घटना को अपने-अपने ढंग से देखते और समझते है। इससे बच्चों में सहानुभूति तथा दया की भावनाओं के विकास सहायता मिलती है।

• ठोस प्रचालनात्मक अवस्था में बच्चा स्थिर संख्या संकल्पना (stable number concept) का विकास करता है। अब वह यह समझने के योग्य हो जाता है कि किसी विशिष्ट संख्या से कितनी मात्रा कही गई है तथा वह अब गिनती में गलतियाँ भी नहीं करता।

• इस अवस्था में बच्चा यह समझने लगता है कि कोई विशिष्ट वस्तु अनेक श्रेणियों से संबंधित हो सकती है (a particular object can belong to different categories)। इसी समझ के आधार पर बच्चा विभिन्न प्रकार के फलों को बीज वाले तथा बिना बीज वाले फलों के रूप में वर्गीकृत कर सकता है। फलों के इसी समूह को सर्दियों में उगने वाले तथा गर्मियों में उगने वाले फलों के रूप में तथा उनके स्वाद के आधार पर मीठे या खट्टे के रूप में भी वर्गीकृत कर सकता है। वर्गीकरण क्षमताओं के विकास के कारण ही वयस्कावस्था में तर्क शक्ति क्षमता का विकास संभव हो पाता है।
औपचारिक संक्रियाओं अथवा प्रचालनों की अवस्था-11-18 वर्ष (Formal Operational Stage)

• बच्चा इस चरण में 11-18 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है। देखा जाए तो, इस चरण पर अब वह बच्चा नहीं रह जाता बल्कि एक किशोर बन जाता है। आप सभी विद्यार्थी भी इस समय औपचारिक प्रचालनों के इस महत्वपूर्ण चरण में ही है-

• इस चरण की प्रमुख विशिष्टता यह है कि, किशोर अब अमूर्त रूप में सोच सकते हैं (can think in abstract terms) अर्थात् उनकी सोच अब मूर्त ठोस घटनाओं, वस्तुओं तथा स्थितियों तक ही सीमित नहीं रह जाती है।

• इस अवस्था के दौरान किशोर अपने सोच-विचार करने के गुणों को अपने विचारों पर भी लागू करना शुरू कर देते है। अब वह अनेक संभावनाओं के बारे में भी विचार कर सकते है जो उन्हें विभिन्न तर्कों तथा अपनी युक्तियों (ideas) के विषय में बातचीत करने के योग्य बनाती है।

• इस अवस्था के दौरान किशोर कल्पनिक रूप से भी सोचना (जो नहीं है पर हो सकता है) अर्थात् प्राक्काल्पनिक सोच (hypothetical thinking) शुरू कर देते है, जैसे कि- ‘क्या होगा यदि ….?’ । सोच की इस विशेषता के कारण किशोर अपनी ही कल्पनाओं में डूब जाते हैं जिनमें संसार को बदल देने के विचार पर शामिल होते हैं।
इस अवस्था के दौरान किशोरों की सोच आदर्शवादी हो जाती है। वह स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए आदर्शवादी विशेषताओं की आशा करने लगते है।

• इस अवस्था में किशोर संसार की बेहतरी के लिए उसे परिवर्तित करने के स्वप्न देखते हैं तथा उस धीमी गति से बेचैन रहते हैं जिस गति से वे मानते हैं कि बूढ़े लोग चल रहे हैं। किशोरों की सोच धीरे-धीरे अधिक तर्कपूर्ण (logical) हो जाती है, उनकी युक्तियाँ अधिक प्रणालीबद्ध (systematic) हो जाती हैं तथा वे अधिक प्रभावी ढंग से समस्याओं का समाधान (problem solving) करने लगते हैं।

• परीक्षण तथा त्रुटि द्वारा सीखने की अपेक्षा किशोर संभावित कार्रवाई के मार्गों के बारे में विचार करते हैं, वे विचार करते हैं कि कोई घटना उस तरह घटित क्यों हो रही है जैसे वह होती है तथा प्रणालीबद्ध ढंग से समाधान ढूँढ़ते हैं। इस प्रकार की सोच को प्राक्कल्पना निगमनात्मक तर्क (hypotheticco-deductive reasoning) कहा जाता है।

• किशोर अपने स्वयं के विचारों की जाँच करने में अधिक सक्षम हो जाते हैं तथा सोच के बारे में विचार करते हैं – इसे अधि-सोच (meta thinking) कहा जाता है। इस प्रकार की कुछ विशिष्ट सोचें हैं- “जैसा मैं करती हूँ वैसा ही मैं क्यों सोचती हूँ?’

• किशोरावस्था के दौरान युवा लोग एक काल्पनिक श्रोता (imaginary audience) समूह का सृजन कर लेते हैं अर्थात् किशोर यह मानने लगते हैं कि दूसरे लोग हमेशा उन्हें ही देखते रहते हैं तथा उनकी प्रत्येक क्रिया तथा कार्य का बारिकी से अवलोकन कर रहे हैं। इसी कारण से किशोर अपनी शारीरिक छवि के प्रति अत्यंत चिंतित हो जाते हैं। किशोर अपने बारे एक व्यक्तिगत चोला (personal fable) ओढ़ लेते हैं। वह यह मानने लगते हैं कि, जो पीड़ा/ भावना वह महसूस कर रहे है वह कोई अन्य नहीं कर रहा क्योंकि वह दूसरों से अलग/अद्वितीय है।

• किशोरावस्था की सोचने की योग्यताओं किशोरों में ‘स्वयं’ तथा ‘पहचान’ की भावना के निर्माण में प्रतिबिंबित होती है जिस पहचान के संकट से किशोर गुज़रता है, वह औपचारिक प्रचालनों की अवधि में उसकी सोच संबंधी योग्यताओं का ही परिणाम होता है।

You Can Join Our Social Account

YoutubeClick here
FacebookClick here
InstagramClick here
TwitterClick here
LinkedinClick here
TelegramClick here
WebsiteClick here