NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 5 कपड़े-हमारे आस-पास (Fabric Around Us) Notes In Hindi
Textbook | NCERT |
class | 11th |
Subject | Physical Education |
Chapter | 5th |
Chapter Name | कपड़े-हमारे आस-पास |
Category | Class 11th Home Science Notes in hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 4 संसाधन प्रबंधन (Management of Resources) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे:- कपड़ों में विविधता के कारण, सामान्य रूप से अपने चारों ओर दिखाई देने वाले कपड़ों के बारे में बताने और उनका वर्गीकरण करने का ज्ञान, सूत और कपड़ा निर्माण की संकल्पना, कपड़ों के प्रत्येक समूह की विशेषता और विशिष्ट उपयोग हेतु वस्त्र उत्पादों का चयन करना। इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।
NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 4 संसाधन प्रबंधन (Management of Resources) Notes In Hindi
Chapter – 5
कपड़े-हमारे आस-पास
Notes
भूमिका (Introduction)
आदिकाल से ही कपड़ा मानव जीवन का अभिन्न अंग रहा है। अपनी लोचशीलता (flexibility) के गुण के कारण कपड़े को विभिन्न आकारों में आसानी से मोड़ा और सिला/जोड़ा जा सकता है, जिसके कारण यह बहुत से उद्देश्यों के लिए काम में लाया जाता है। कपड़ा मुख्य रूप से शरीर को आराम और सर्दी, गर्मी तथा वर्षा इत्यादि से सुरक्षा प्रदान करता हैं। कपड़े को विभिन्न रंगों में, सजावट शैलियाँ में और अलग-अलग प्रकार की बुनावट द्वारा तैयार किया जाता है। अपनी नियमित दिनचर्चा के दौरान हम सब विभिन्न प्रकार के कपड़ों का प्रयोग करते है, जैसे कि- नहाने के बाद शरीर को पोछने के लिए तौलिए का, स्कूल जाते समय स्कूल ड्रेस का, सोने के दौरान चादर और तकिए के लिहाफ इत्यादि का। यदि आप इन सभी प्रकार के कपड़ों के स्पर्श के विषय में सोचेंगे तो आपको ध्यान आएगा कि लगभग सभी प्रकार के कपड़ों को छूने पर अलग-अलग एहसास प्रतीत करवाता है, जैसे कि- कोई कपड़ा छूने में नरम, कोई रोएदार, कोई खुरदरा तो कोई थोड़ा सख्त, कोई हल्का तो कोई भारी होने का एहसास महसूस होता है। अलग-अलग प्रकार के कपड़े को छूने पर अलग प्रकार का एहसास होने का मुख्य कारण कपड़े की अलग-अलग प्रकार की बनावट होती है। यदि आप ध्यान से अपनी घर में ही देखेंगे तो आप लगभग सभी स्थानों पर कपड़े पाएँगे, पर्दों से लेकर किचन के डस्टर तक और पोंछे से लेकर दरी तक। कपड़े, वजन और मोटाई में विभिन्न प्रकार के होते हैं तथा उनका चयन, उनके उपयोग पर निर्भर करता है। किसी मोटे कपड़े के टुकड़े को एक तरफ से खोलने पर आप देखेंगे कि उसमें धागे जैसी संरचनाएँ एक-दूसरे के समकोण पर अंतर्ग्रथित (interlaced) या फिर आपस में गुंथे (interlooped) हुए होती हैं जैसे कि- ऊनी वस्त्र अथवा टी-शर्ट में होता है। इनकी गाँठ बँधी हुई होती है जैसे जाल अथवा लेस में होता है। इन्हें सूत कहा जाता है। |
जब दो या उससे अधिक रेशों को आपस में गुंथा जाता हैं तो उसे सूत अथवा धागा कहते है। तथा सूत को खोलने पर छोटे और स्पष्ट पतले धागे जैसी संरचनाएँ दिखाई देती है, इन्हे रेशे कहते है। सरल शब्दों में कहें तो– वस्त्र निर्माण की सबसे छोटी व मूल इकाई को तन्तु या रेशा कहते हैं। ये रेशे सभी वस्त्रों की मूल इकाई होते हैं। रेशे, सूत और कपड़ा, इन सभी वस्तुओं से बने उत्पादों को वस्त्र उत्पाद अथवा वस्त्र कहा जाता है। सभी कपड़े धागों (yarns) को बुनकर बनाए जाते हैं और धागे, तंतुओं (fibres) को मिलाकर बनाए जाते हैं। तंतु (Fibre) मिलाकर = धागा (Yarn) बुनकर = कपड़ा (Fabric) सिलकर = परिधान (Garments) |
एक बार कपड़ा तैयार होने के बाद उसे आगे कई बार संसाधित किया जाता है, संसाधित करने से- (i) कपड़े की ऊपरी दिखावट अर्थात् उसकी सफाई, चमक, रंग इत्यादि में सुधार आता है। कपड़ों को संसाधित करने की विभिन्न विधियों को, परिष्करण (फिनिशिंग) कहा जाता है। आजकल बाज़ार में विभिन्न प्रकार के कपड़े उपलब्ध हैं, और प्रत्येक कपड़े की अलग-अलग उपयोगिता है। विभिन्न प्रकार के कपड़ों की उपयोगिता तथा उनके देखभाल का तरीका कपड़ें में प्रयोग किए गए रेशे, सूत, और उसे संसाधित करने के लिए प्रयोग की गई विधियों जैसे कारकों पर निर्भर करता है। कपड़े के निर्माण के दौरान प्रयोग किए गए रेशे, सूत, कपड़े का प्रकार तथा उसे संसाधित करने की विधियाँ कपड़ें के टिकाऊपन, कार्यात्मकता, उपयोगिता तथा आरामदायकता जैसे पहलुओं को प्रभावित करती है। इसलिए अपनी पसंद एवं आवश्यकता के अनुरूप कपड़ा खरीदने के लिए इन सभी तथ्यों का ज्ञान होना जरूरी है। |
रेशे के गुण/विशेषताएँ (Fibre Properties) रेशों/ तंतुओं के गुणों को निम्नलिखित रूप से प्राथमिक व द्वितीयक गुणों/विशेषताओं में वर्गीकृत किया गया है 1. रेशों के प्राथमिक गुण/विशेषताएँ (Primary Properties of Fibres) वह गुण/विशेषताएँ जो कपड़ा बनाने वाले तंतुओं में होना अनिवार्य होता है, प्राथमिक गुण/विशेषताएँ कहलाते है। प्राथमिक गुणों के बिना तंतु से कपड़ा नहीं बन सकता। तंतुओं की रचना, लंबाई, मजबूती, लचीलापन इत्यादि तंतुओं के प्राथमिक गुण होते है। (i) लंबाई-चौड़ाई का अनुपात (Length and Width Ratio of Fibre) : कपड़ा बनाने के लिए विभिन्न लंबाई के तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। छोटे तंतुओं को स्टेपल (Staple) तथा लंबे तंतुओं को फिलामेंट (filament) कहते हैं। छोटे तंतु की अपेक्षा लंबे तंतुओं को कपड़े बनाने के लिए अच्छा माना जाता है। स्टेपल से प्रायः घटिया किस्म का कपड़ा बनता है तथा फिलामेंट से बढ़िया किस्म का कपड़ा बनता है। (ii) रेशों का बल (Strength of the Fibre) : तैयार कपड़े की मजबूती उसके तंतुओं के बल पर निर्भर करती है। तंतुओं की कोशिकाएँ लम्बाई के समानान्तर स्थित होती हैं। यदि कोशिकाएँ व्यवस्थित होती हैं तो तंतु मजबूत व संगठित रहता है। यदि कोशिकाएँ बिखरी हुई हों तो तंतु कमजोर व असंगठित होता है। इससे तैयार वस्त्र भी कमजोर होता है। (iii) रेशों में अनम्यता (Pliability) : इस गुण के कारण तंतुओं में खिंचाव, तनाव व झटकों को सहने की शक्ति आती है। जिसके कारण वह कताई तथा वस्त्र निर्माण की प्रक्रिया के दौरान टूटते नहीं। अच्छा कपड़ा बनाने के लिए इस गुण का होना अनिवार्य है। (iv) रेशों का लचीलापन (Flexibility) : लचीलेपन का अर्थ है, तंतु का बिना टूटे पूरी तरह से मुड़ जाना। इसी क्षमता के कारण तंतुओं से कपड़ा तैयार हो पाता है। तन्तुओं के इसी गुण के कारण उठना-बैठना, चलना-फिरना इत्यादि सहजता से हो पाता है। (v) रेशों की आपस में सटने की/जुड़ने की क्षमता (Cohesiveness) : इस क्षमता के कारण तंतुओं को एक-दूसरे के समीप रखकर उनकी बटाई तथा कताई की जाती है। जिससे धागे तैयार होते हैं। तंतुओं के इसी गुण के कारण उनकी कताई की शक्ति भी अधिक होती है। |
2. रेशों के द्वितीयक गुण/विशेषताएँ (Secondary Properties of Fibres) वह गुण/विशेषताएँ जो कपड़ों में होना अनिवार्य तो नहीं होते परंतु वांछनीय (Expected) होते है, द्वितीयक विशेषताएँ कहलाते है। चमक, प्रतिरोधकता, अवशोषकता, ज्वलशीलता इत्यादि जैसे गुण, द्वितीयक गुण होते है। इन्हीं गुणों के कारण किसी कपड़े का प्रयोग तथा मूल्य निर्धारित किया जाता है। इन गुणों का ग्राहक संतुष्टि में विशेष योगदान होता है। (i) रेशों में चमक (Lustre) : तंतुओं में प्रकाश को प्रतिबिम्बित करने की क्षमता जितनी अधिक होती है। तन्तुओं में उतनी ही अधिक होती है। रेशम के तंतुओं में सूती तंतुओं की अपेक्षा अधिक चमक होती है। ऊनी तंतु की चमक कम होती है। जबकि कृत्रिम तंतुओं की चमक को इच्छानुसार नियंत्रित किया जा सकता है। (ii) रेशों में अवशोषकता (Absorbency) : जल सोखने की शक्ति को अवशोषकता कहते हैं। अधिक अवशोषकता वाला वस्त्र पसीना सोखने की दृष्टि से भी बेहतर माना जाता है। तंतुओं में अवशोषकता का गुण उसकी रंगाई तथा छपाई में भी सहायक होता है। (iii) रेशों में प्रत्यास्थता (Elasticity) : तंतुओं को खींचने पर लम्बा होना तथा छोड़ने पर वापस अपनी वास्तविक लम्बाई में आ जाना प्रत्यास्थता का गुण हैं। प्रत्यास्थता न होने पर तंतु खींचने पर टूट जायेंगे इसलिए इनसे बने वस्त्र टिकाऊ नहीं होंगे। यदि तंतुओं में सिर्फ खींचने की क्षमता हो तथा अपनी पूर्वावस्था में आने की शक्ति न हो तो उनसे बना वस्त्र अपना आकार खो देंगे। प्रत्यास्थता का गुण वस्त्र को टिकाऊ, आरामदायक तथा अपना आकार बनाए रखने की क्षमता प्रदान करता है। (iv) रेशों में पुनरूत्थान (Resiliency) : तंतुओं पर तनाव तथा दबाव पड़ने से उनके आकार में बदलाव आता है। यह तनाव व दबाव हटाए जाने पर तंतुओं का अपनी पूर्वावस्था में स्वतः ही आ जाना पुनरुत्थान कहलाता है। तन्तुओं के इसी गुण से वस्त्र में सिलवट प्रतिरोधक क्षमता (Crease Resistance) बनती है। ऊनी वस्त्रों में ऊत्तम पुनरूत्थान क्षमता पाई जाती है। (v) रेशों में कोमलता (Softness) : तंतुओं के अत्यधिक कोमल होने से उनसे बने वस्त्र भी कोमल होते हैं। इस गुण से वस्त्रों का प्रयोग काफी हद तक प्रभावित होता है। (vi) रेशों में ज्वलनशीलता (Flammability) : विभिन्न तंतुओं पर ताप का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। कुछ तंतु अधिक ताप सहन कर सकते हैं जैसे कि- सूती तंतु। वहीं कुछ तन्तु ताप सहन नहीं कर सकते जैसे कि- कृत्रिम तंतु । तन्तुओं का यह गुण वस्त्रों की धुलाई, इस्त्री तथा ड्राईक्लीन आदि को प्रभावित करता है। अधिक ताप सहने वाले तंतु को अधिक तापमान पर धुलाई, इस्त्री आवश्यकता होती है इसलिए ये अधिक सुरक्षित माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त वस्त्रों तथा रेशों/तंतुओं में कुछ गुण भी पाए जाते हैं जिनके आधार पर भी वस्त्रों का चयन प्रभावित होता है। ये गुण हैं- |
वस्त्र रेशों का वर्गीकरण (Classification of Textile Fibres) वस्त्र रेशों को निम्न के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है- (i) प्राप्ति के स्रोत/उद्भव (origin) के आधार पर, जैसे कि- प्राकृतिक, मानव निर्मित अथवा विनिर्मित। |
प्राकृतिक रेशे (Natural Fibres) वह रेशे जो प्राकृतिक रूप से वनस्पतियों या जंतुओं से प्राप्त होते हैं, प्राकृतिक रेशे कहलाते है। प्राकृतिक रेशे मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं- 1. सेलुलोसिक रेशे (Cellulosic Fibres) : पेड़-पौधों में सैल्युलोज होता है जिसके कारण पेड़-पौधों से प्राप्त होने वाले रेशों को वनस्पतिक/सैल्युलोजयुक्त रेशे कहा जाता हैं। यह निम्न प्रकार के होते है- (a) बीज तथा फलों के रेशे (Seed and Fruit Fibres) : कॉटन तथा कापोक पेड़ से प्राप्त होने वाला कापोक रेशे। (b) बास्ट रेशा (Bast fibres) : बास्ट रेशा बहुत ही मजबूत सेलुलोसिक रेशा है जो कि, पौधो के बाहरी और भीतरी तनों से प्राप्त होता है। जूट, लेक्स (लिनेन), हेम्प इत्यादि बास्ट रेशे के प्रमुख उदाहरण है। (c) लीफ रेशा (Leaf Fibres) : अनानास, अगेव (सीसल)। (d) नट हस्क रेशा (Nut Husk Fibres) : नारियल से प्राप्त कॉयर नट हस्क रेशे का प्रमुख उदाहरण है। |
2. प्रोटीन / जांतव रेशे (Protein/Animal Fibres) : वह रेशे जो जीवों से प्राप्त होते हैं, जांतव रेशे कहलाते हैं। जांतव रेशे मुख्य रूप दो प्रकार के होते है- (a) जंतु रोम रेशे (Animal Hair Fibres) : ऊन सबसे प्रमुख जंतु रोम रेशा जोकि विभिन्न प्रजातियों की भेड़ों से प्राप्त होता है। मोहीर, कश्मीरी, अल्पाका, लामा, वक्ना, काशा, विभिन्न प्रकार के वस्त्रों में प्रयोग किए जाने वाले कुछ प्रमुख जंतु रोम रेशे है। (b) जंतु स्राव रेशा (Animal Secretion Fibres) : रेशम सबसे प्रमुख जंतु स्राव रेशा है जोकि रेशम के कीड़े से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त एक विशेष प्रकार की मकड़ी तथा समुद्री सीप से भी विभिन्न प्रकार के रेशम प्राप्त होते है। |
3. खनिज रेशे (Mineral Fibre) : ऐसे रेशे जो प्राकृतिक खनिजों से प्राप्त होते हैं तथा जिनमें खनिज लवण पाए जाते हैं, खनिज रेशे कहलाते है। ऐस्बेस्टस खनिज रेशों का प्रमुख उदाहरण है जोकि मैग्नीशियम तथा कैल्शियम से प्राप्त होता है। खनिज रेशों से बने कपड़े का प्रयोग मुख्य रूप से औद्योगिक इकाईयों में किया जाता है। |
4. प्राकृतिक रबड़ (Natural Rubber)। |
मानव निर्मित/विनिर्मित रेशे (Manufactured or Man Made Fibres) वे रेशे जिनके उत्पादन के दौरान उनकी भौतिक एवं रासायनिक संरचना के साथ-साथ उनके गुणों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है, मानव निर्मित रेशे कहलाते है। रेयॉन पहला मानव निर्मित रेशा था जिसका वाणिज्यिक स्तर पर 1895 में उत्पादन शुरू किया गया था, जबकि अन्य मानव निर्मित रेशों का उत्पादन 20वीं सदी के दौरान शुरू हुआ था। मानव निर्मित रेशों के शुरूआती दौर में गैर-तंतुमय (non-fibrous) सामग्री को तंतुमय (fibrous) रूप में परिवर्तित करके रेशे तैयार किए जाते थे। इसके लिए मुख्य रूप से सेलुलोसिक पदार्थ, जैसे कि- कपास अपशिष्ट, अथवा लकड़ी की लुगदी आदि का प्रयोग किया जाता था। फिर, धीरे-धीरे रेशे को पूरी तरह रसायनों के उपयोग से बनाया जाने लगा। |
मानव निर्मित रेशे बनाने की प्रक्रिया (Process of Manufacturing Man Made or Manufactured Fibres) सबसे पहले ठोस कच्चे माल को विशिष्ट संघनता (specific viscosity) के तरल रूप (liquid) में परिवर्तित किया जाता है, जिसे चक्रण घोल/स्पिनिंग सोल्यूशन (spinning solution) कहा जाता है। कच्चे माल का ठोस से तरल में परिवर्तित होना मुख्य रूप से रासायनिक क्रिया, उचित घोल, ताप अनुप्रयोग (application of heat) अथवा मिश्रण प्रक्रिया (combination action) के कारण हो पाता है। फिर इस घोल को स्पिनरेट (spinnerette) में डाला जाता है जोकि एक बहुत छोटे छेद्रों वाली थिम्बिल जब ये तंतु ठोस हो जाते हैं तब इन्हें एकत्र किया जाता है और अधिक सूक्ष्मता तथा अभिविन्यास (fineness and orientation) के लिए ताना जाता है। फिर इन्हें आवश्यकता अनुरूप विशेषताओं में सुधार के लिए पुन: संसाधित किया जाता है। |
मानव निर्मित रेशे चार प्रकार के होते हैं- (a) परिवर्तित सैलुलोसिक रेशे (Regenerated Cellulose Fibres) : यह प्राकृतिक तत्वों को पुनरूत्दपादन करके बनाए जाते हैं। जैसे- रेयॉन । (b) परिवर्तित रेशे (Modified Fibres) : इनको कच्चे प्राकृतिक पदार्थों में बनाया जाता है। जैसे- बेकार सूती रेशों या लकड़ी की लुग्दी को रसायनों की सहायता से पुनरुत्पादित किया जाता है। रेयॉन एक पुर्नउत्पादित सेल्यूलोज रेशा है। बेकार रेशम व ऊन को रसायनों के साथ मिलाकर बनाए रेशे पुर्नउत्पादित प्रानिज रेशे कहलाते हैं जैसे कि- मेरीनोवा। (c) प्रोटीन रेशे (Protein Fibres) : अजलॉन। (d) गैर-सेलुलोसिक/सिंथेटिक रेशे (Non-cellulosic/Synthetic Fibres) : यह रेशे रासायनिक तत्वों की रासायनिक क्रिया द्वारा सम्मिश्रित करके बनाये जाते हैं। जैसे कि- , (i) नायलॉन (e) खनिज रेशे (Mineral Fibres) : ग्लास फाइबर ग्लास |
कुछ महत्त्वपूर्ण रेशे/तंतु तथा उनके गुण (Some Important Fibres and thier Properties) 1. कपास (Cotton) कपास एक प्राकृतिक तंतु है, जो कपास के पौधों के कोये से प्राप्त होता है। इससे बने कपड़े विश्व भर में प्रयोग किए जाते हैं। कपास के उत्पाद के लिए गर्म प्रदेश, नम जलवायु तथा नम भूमि का आवश्यकता होती है। अनुकूल जलवायु तथा काली रेतीली नम मिट्टी में ऊत्तम श्रेणी का लम्बे तंतु वाला कपास उगता है। भारत, मिस्र, चीन, रूस, अमरीका तथा ब्राजील प्रमुख कपास उत्पाद देश हैं। विश्व के कपास उत्पाद में अमरीका का प्रथम तथा भारत का दूसरा स्थान है। विश्व में सबसे ऊत्तम स्तर की गुणवत्ता वाली कपास मिस्र में उगाया जाता है। भारतीय कपास अपेक्षाकृत खुरदरी परन्तु दृढ़ होती है। कपास का उत्पादन मूल्य कम होता है इसीलिए इसका प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है। जैसे कि- वस्त्र, चादरें, तकिए, बनियान, घर में इस्तेमाल होने वाले अन्य वस्त्र आदि। |
कपास के रेशों की गुण/विशेषताएँ (Characteristics of Cotton Fibre) भौतिक गुण/विशेषताएँ (Physical Characteristics) (i) रचना (Structure) : कपास के रेशे छोटे होते है (1 सेमी. से 6 सेमी. तक)। यह तंतु कुछ चपटी घुमावदार नली के समान होता है, जिसकी (ii) चमक (Lustre) : कपास के तंतु में प्राकृतिक चमक नहीं होती। हालांकि परिसज्जा द्वारा इसमें चमक लाई जा सकती है। (iii) रंग (Colour) : कपास के रेशे प्राय: सफेद मटमैले रंग के होते हैं। (iv) ताप के सुचालकता (Heat Conductivity) : कपास के रेशे ताप के सुचालक होते हैं। इसलिए गर्मी में इनसे बने कपड़े पहनने पर ठंडक का एहसास होता है। (v) लचीलापन (Flexibility) : कपास के तंतुओं में लचीलेपन का अभाव रहता है। अर्थात् इसे खींचकर बढ़ा नहीं सकते जिसके कारण इनका एक निश्चित आकार ही रहता है। (vi) अवशोषकता (Absorbity) : कपास अच्छा अवशोषक माना जाता है। ये अपने भार से लगभग 15 से 20 गुणा अधिक नमी सोखने की क्षमता रखते हैं। यही कारण है कि सूती कपड़ा शरीर का पसीना आसानी से शीघ्र सोख लेता है। जिसके चलते इससे तौलिए भी बनाए जाते हैं। (vii) ताप सहने की क्षमता (Heat Resistence) : कपास में ताप सहने की अधिक क्षमता होती है। इसी लिए गर्म इस्त्री से ही कपास के बने वस्त्रों में सिलवटें दूर की जा सकती हैं। (viii) ज्वलनशीलता (Flammability) : कपास में मध्यम स्तर की ज्वलनशीलता होती है। लौ के पास ले जाने से यह आग पकड़ लेती है। (ix) प्रतिस्कंदता (Regain Originality) : कपास के वस्त्रों में प्रतिस्कंदता का गुण नहीं पाया जाता। इसलिए कपास के बने वस्त्रों पर सिलवटें जल्दी पड़ जाती है। |
रासायनिक गुण/विशेषताएँ (Chemical Characteristics) (i) जीवाणुओं का प्रभाव (Effect of Micro Organisms) : सूती वस्त्रों पर कीड़ों का प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इनका संग्रह आसान होता है। परन्तु कपड़ों में नमी होने पर यदि उन्हें छोड़ दिया जाये तो फफूंदी लगने का डर रहता है। (ii) क्षार का प्रभाव (Effect of Alkalies) : सूती वस्त्रों पर क्षार का प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इन्हें क्षारीय साबुनों से धोया जा सकता है। हालांकि कि रंगीन सूती कपड़ों को अधिक क्षारयुक्त साबुन से धोने पर उनका रंग खराब हो सकता है। (iii) अम्ल का प्रभाव (Effect of Acids) : सूती वस्त्र अम्ल के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए सूती वस्त्रों पर लगे अम्लीय पदार्थों के दोगों को आमोनिया में भीगोकर उन दागों को तुरंत धो डालने चाहिए। (iv) सूर्य की किरणों का प्रभाव (Effect of Sun Light) : सूती कपड़ों को थोड़ी देर के लिए तेज धूप में सुखाया जा सकता है परंतु इन्हें अधिक देर तक धूप में रखने से इनका रंग पीला पड़ जाता है और तंतु कमजोर हो जाते हैं। |
कपास के रेशों की वस्त्रों के लिए उपयोगिता (i) सूती वस्त्र कम कीमत के एवं मजबूत होते हैं। |
2. लिनेन (Linen) लिनेन एक प्राकृतिक रेशा है जो लैक्स के पौधे के तने से प्राप्त होता है। तने की छाल के भीतरी गूदेदार भाग को बास्ट कहा जाता है, इसलिए लिनेन को बास्ट रेशा भी कहा जाता है। लिनेन रेशे प्राप्त करने के लिए लैक्स पौधे के तनों को लंबे समय तक पानी में भिगोया जाता है, ‘ताकि तने का नरम भाग गल जाए, इस प्रक्रिया को अपगलन (रैटिंग) कहा जाता है। अपगलन प्रक्रिया अलग किया जाता है और लिनेन के रेशों को एकत्र कर उन्हें कताई (spinning) के लिए भेजा दिया जाता है। |
लिनेन के रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Linen Fibre) (i) चूँकि लिनेन भी एक सेलुलोसिक रेशा है, इसलिए इसके बहुत से गुण/विशेषताएँ कपास (cotton) जैसे ही होते हैं। लैक्स पौधा विश्व में बहुत कम क्षेत्रों में उगाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसे संसाधित करने में भी लंबा समय लगता है, इसलिए लिनेन का उपयोग कपास की अपेक्षा काफी कम होता है। जूट और सन भी लिनेन की तरह बास्ट रेशे हैं। इसके रेशे मोटे होते हैं, और उनकी सुनम्यता भी अच्छी नहीं होती, इसलिए इनका उपयोग केवल रस्सियाँ और बोरे तथा इसी प्रकार के अन्य उत्पाद बनाने के लिए किया जाता है। |
3. ऊन (Wool) ऊन एक प्राकृतिक, प्राणिज तथा प्रोटीन तंतु है जो विभिन्न पशुओं के शरीर पर उगे बालों से प्राप्त होता है। आदिकाल से ही मानव सर्दी से बचने के लिए विभिन्न पशुओं को मार कर उनकी खाल को आवरण के रूप में प्रयोग करता था। धीरे-धीरे पशुओं की खाल के बाल अलग करके उन्हें तंतु रूप में प्रयोग किया जाने लगा। सभी प्राकृतिक तंतुओं में से ऊन का प्रयोग तंतु के रूप में मानव ने सबसे पहले करना सीखा। अधिकत्तर ऊन भेड़ों से ही प्राप्त की जाती है। मेरीनो जाति की भेड़ की ऊन सबसे उत्तम किस्म की मानी जाती है। भेड़ों के अतिरिक्त अन्य पशु जैसे- मेमने, ऊँट, हिरण, लोमड़ी, खरगोश, अंगोरा आदि से भी ऊन प्राप्त की जाती है। ऊन बनाने के लिए बाल जब जिंदा पशुओं से निकाले जाते हैं तो उसे फ्लीस या क्लिप ऊन (fleece or clipped wool) कहते है। जब मरे हुए पशुओं से बाल निकाले जाते हैं तो उसे खिंची हुई ऊन (pulled wool) कहा जाता है। खिंची ऊन फ्लीस ऊन से घटिया श्रेणी की होती है। ऊन के लिए पशुओं बाल उतारने की क्रिया को कतरना (shearing) कहते है तथा इस क्रिया में कतरे गए बालों को एक ही टुकड़े में निकालने का प्रयास किया जाता है ताकि उससे आसानी से रेशे निकाले जा सकें। ऊन की श्रेणी भेड़ों की आयु तथा कितनी बार उनकी ऊन निकाली जा चुकी है, जैसे कारकों पर भी निर्भर करती है। मेमने की ऊन चमकदार, बहुत अधिक गर्म तथा कमजोर होती है। परिपक्व भेड़ की ऊन मजबूत तथा खुरदरी होती है। मृत भेड़ की ऊन सबसे निम्न श्रेणी की होती है। |
ऊन का वर्गीकरण (Classification of Wool) सभी प्रकार की ऊनों को चार वर्गों में बाँटा गया है- उत्तम ऊन |
ऊन के तंतुओं से तीन प्रकार के वस्त्र तैयार किए जाते हैं- ऊनी वस्त्र (Woollens) : इन्हें छोटे तंतुओं द्वारा बनाया जाता है। तंतुओं की अधिक कंघी या कताई नहीं की जाती इसलिए ये वस्त्र मोटे, खुरदरे होते हैं। वस्टैंड (Worsted Fabric) : ये वस्त्र लंबे रेशों से बनाए जाते हैं। तंतुओं की कंघी तथा कताई करने के पश्चात ज्यादा ऐंठन वाले धागे तैयार किए जाते हैं जिनसे वर्टेड वस्त्र ज्यादा मजबूत तथा चिकनी सतह वाले होते हैं। पुरुषों के कोट-पेंट एवं सूट आदि इस वस्त्र से तैयार किए जाते हैं। नमदा (Felted Fabric) : मोटी तथा खुरदरी ऊन के प्रयोग से नमदा वस्त्र बनाए जाते हैं। ये वस्त्र सीधा तंतुओं से तैयार किए जाते हैं व इनमें धागे का निर्माण नहीं किया जाता। खुरदरे, बचे-खुचे तंतुओं को उचित नमी, तापमान व दबाव द्वारा आपस में जोड़ दिया जाता है। उसके पश्चात वस्त्र को साफ करके, काट-छाँटकर आवश्यकतानुसार रंग करके अथवा कढ़ाई करके प्रयोग के लिए तैयार किया जाता है। इस विधि द्वारा अधिकतर फर्श पर बिछाने के लिए कालीन तैयार किए जाते हैं। कश्मीर का नमदा उद्योग विश्व प्रसिद्ध कारीगरी के लिए जाना जाता है। |
ऊनी वस्त्रों का उत्पादन (Manufacturing of Woollen Clothes) ऊनी वस्त्रों के उत्पादन के लिए भेड़ों व अन्य जानवरों के बालों को एकत्रित कर, छंटाई के पश्चात् इनकी सफाई की जाती है। फिर इन्हें क्षार के घोल में धोया जाता है। इस से ऊन के तंतु साफ, कोमल व स्वच्छ हो जाते हैं। सूखने के बाद इन पर जैतून का तेल छिड़ककर, सुलझाकर धागा निर्माण करने के लिए भेजा जाता है। ऊनी वस्त्रों के लिए तंतुओं को केवल सुलझाकर कम ऐंठन वाला धागा तैयार किया जाता है। जबकि वर्टेड वस्त्रों के लिए तंतुओं को विधिवत् कंघी द्वारा बराबर व पूर्ण रूप से समानान्तर करके कताई की जाती है। इस मजबूत धागे को वस्टेंड वस्त्र तैयार करने के लिए प्रयोग किया जाता है। |
ऊन के रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Wool Fibre) भौतिक गुण/विशेषताएँ (Physical Properties) (i) रचना (Structure) : ऊन एक प्राणीजन्य उत्पाद है, इसलिए इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है। ऊन की बाहरी परत पर छोटी-छोटी कोशिकाएँ होती है जो रोएँ जैसी प्रतीत होती है। उत्तम किस्म के ऊन में ये अधिक रोएँ होते हैं। (ii) लंबाई (Length) : ऊन के रेशे अधिक लंबे नहीं होते। इनकी लंबाई 1″ से 15″ इंच तक ही रही है। (iii) चमक (Luster) : भेड़ों की प्रजाति के अनुसार उनकी ऊन की चमक भी अलग-अलग होती है। निम्न श्रेणी की ऊन बहुत चमकीली होती है। (iv) मजबूती (Strength) : सभी प्राकृतिक तंतुओं में से ऊन के तंतु सबसे कमजोर होते है। गीली अवस्था में तो यह और भी कमजोर पड़ जाते है। (v) लचीलापन (Flexibility) : ऊन में अत्यधिक लोच पाई जाती है। जिससे खींचने पर वह पुनः अपनी अवस्था में आ जाती है। सभी प्राकृतिक तंतुओं में ऊन के तंतुओं में सबसे अधिक लचीलापन होने के कारण ये शरीर पर फिट आ जाते हैं। (vi) पुनरुथान (Regain Originality) : प्रतिस्कंदता के गुण के कारण ही ऊनी वस्त्रों में सिलवटें नहीं पड़ती। इसलिए इन्हें अधिक प्रेस करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। (vii) सिकुड़न (Shrinkage) : सभी प्रकार के ऊनी वस्त्र सिकुड़ते हैं परन्तु वर्टेड वस्त्र ऊनी कपड़े की अपेक्षा कम सिकुड़ता है। (viii) अवशोषकता (Absorbity) : ऊनी तंतुओं में नमी सोखने की जबरदस्त क्षमता होती है। यहीं कारण है कि उन्हीं वस्त्र गीले होने पर देर से सूखते है। (ix) ताप की संवाहकता (Conductivity of Heat) : ताप के अच्छे सुचालक होने के कारण यह सर्दियों में ही पहने जाते हैं। जिससे की शरीर की गर्मी बाहर न निकले। (x) ताप का प्रभाव (Effect of Heat) : ऊनी वस्त्र अधिक तापमान नहीं सह सकते। अधिक ताप से ऊनी वस्त्रों की बाहरी परत नष्ट हो जाती है। इसलिए उन पर आवश्यकता होने पर बहुत ही हल्की प्रेस करनी चाहिए। (xi) धूप का प्रभाव (Effect of Sun) : ऊनी कपड़ों को अधिक देर तक प्रत्यक्ष धूप में रखने से उनका रंग उड़ने लगता है। इसलिए ऊनी वस्त्रों को छाया में ही सूखाया जाना चाहिए। (xii) स्वच्छता (Cleaniess) : ऊनी रेशों की सतह खुरदरी होने के कारण उन पर धूल के कण आसानी से फँस जाते हैं। धोते समय ऊनी कपड़ों को पानी में देर तक भिगोकर नहीं रखनी चाहिए क्योंकि पानी में भिगोने से उनकी शक्ति कम हो जाती है और तंतु खुरदरे हो जाते हैं। धोने के पश्चात् ऊनी कपड़ों को लटकाकर नहीं सुखाना चाहिए क्योंकि इससे इनका आकार खराब हो जाता है। |
रासायनिक गुण/विशेषताएँ (Chemical Properties) जीवाणुओं का प्रभाव (Effect of Micro Organisms) : लंबे समय तक नमी वाली जगह पर पड़े रहने से ऊनी वस्त्रों का पर फफूंदी लग सकती है। इसके अतिरिक्त कीड़ों का भी ऊनी वस्त्रों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इसलिए इन्हें लंबे समय के लिए रखने से पहले इन्हें अच्छी तरह धूप दिखाकर रखना चाहिए। समय का प्रभाव (Effect of Time) : ऊनी वस्त्रों को यदि लम्बे समय तक गंदा ही छोड़ दिया जाए तो यह कमजोर पड़ जाते है तथा इनमें कीड़े लगने की पूरी संभावना होती है। लम्बे समय तक संभालने के लिए नैपथलीन की गोलियों तथा नीम की सूखी पत्तियों का प्रयोग करना चाहिए, ताकि वस्त्रों की कीड़ों से रक्षा की जा सके। अम्ल का प्रभाव (Effect of Acids) : ऊनी वस्त्रों पर सांध्र अम्ल जैसे कि- सल्फ्यूरिक अम्ल का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। हालांकि हल्के अम्लों का ऊन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्षार का प्रभाव (Effect of Alkalies) : सभी प्रकार के क्षारीय घोलों का ऊन के तंतुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आर के प्रभाव से ऊनी कपड़े गल जाते हैं या फिर इनके तंतु कमजोर पड़ जाते हैं। ऊनी वस्त्रों की उपयोगिता ऊनी वस्त्र ताप के कुचालक होते हैं। इसलिए इन्हें सर्दियों में ही पहनना चाहिए। इनमें सिलवटे नहीं पड़ती। इन्हें कम धोने व इस्त्री करने की आवश्यकता पड़ती है। ऊनी वस्त्रों को विशेष परिसज्जा द्वारा सिकुड़न विरोधी बनाया जा सकता है। विशेष परिष्कृतियाँ कर देने से इनमें कीड़ा लगने का डर भी नहीं रहता। जिससे इनका रख रखाव आसान हो जाता है। |
4. रेशम (Silk) सिल्क या रेशम एक प्राकृतिक पशुजन्य तंतु है जो रेशम के कीड़े से प्राप्त होता है। एक कथा के अनुसार रेशम के तंतु का अविष्कार चीन देश में ईसा ‘लगभग 2600 वर्ष पूर्व एक राजकुमारी द्वारा अचानक ही हुआ। राजकुमारी की चाय की प्याली में रेशम के कीड़े का कुकून गलती से गिर गया। राजकुमारी द्वारा कुकून को निकाले जाने पर उसमें से बारीक, सुन्दर तंतु खिंचता चला आया। इन तंतुओं को एकत्र करके इन्हें बुनकर सुन्दर कपड़ा तैयार किया गया। इसी तंतु को रेशम या सिल्क का नाम दिया गया। कई शताब्दियों तक रेशम के उत्पादन का रहस्य चीन तक ही सीमित रहा। धीरे-धीरे यह रहस्य चीन से बाहर आया और अन्य देशों जैसे- जापान, भारत, इटली, स्पेन, फ्रांस व अन्य यूरोपीय देशों में रेशम का उत्पादन होने लगा। जापान ने आधुनिक वैज्ञानिक विधि द्वारा रेशम के वस्त्रों का निर्माण होता है। रेशम के उत्पादन के लिए रेशम के कीड़ों को शहतूत के पेड़ पर पाला जाता है। शहतूत के पत्ते इन कीड़ों का भोजन होते हैं इसलिए रेशम की कभी-कभी ‘मलबरी सिल्क’ अर्थात् शहतूत का रेशम भी कहा जाता है। |
रेशम के कीड़ें के जीवन की चार अवस्थाएँ होती हैं- अंडा → लारवा → प्यूपा (कुकून) → मॉथ (तितली) कीड़े का लारवा शहतूत के पत्तों का भोजन करता है। कुछ बड़ा होने पर यह भोजन ग्रहण करना बंद कर देता है तथा इसके मुख के पास दो छिद्रों से लार बाहर आने लगती है। यह लार हवा में सूख जाती है तथा दो बहुत बारीक धागों के रूप में दिखाई देती है। सेरिसिन नामक गोंद से यह दोहरा धागा आपस में जुड़ता है तथा लारवा पर लिपटता जाता है। लारवा पूरी तरह से धागे में लिपट जाने पर प्यूपा या ‘कुकून’ में परिवर्तित हो जाता है। रेशम के रेशे इसी कुकून से प्राप्त किए जाते हैं। कुकून इकट्ठा करके उन्हें खौलते पानी में कुछ देर रखा जाता है ताकि गोंद ढीली हो जाए तथा तंतु आसानी से बाहर आ जाए। गर्म पानी से कुकून के अन्दर का लारवा भी मर जाता है। तंतु को खोलकर रील पर सफाई से लपेटा जाता है तथा आवश्यकतानुसार बहुत से तंतुओं को एक साथ बटकर धागे तैयार किए जाते हैं जिनसे रेशम का कपड़ा तैयार होता है। |
रेशम के रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Silk Fibre) भौतिक गुण/विशेषताएँ (Physical Properties) रचना (Structure) : रेशम का तंतु एक प्राकृतिक प्रोटीन फाइब्रोइन (fibroin) से बना होता है। चूंकि रेशम एक पशुजन्य तंतु है। इसलिए इसमें प्रोटीन की मात्रा सबसे अधिक पाई जाती है। लम्बाई (Length) : सभी प्राकृतिक तंतुओं में से रेशम के तंतु सबसे लंबे होते हैं। इनकी लंबाई कई सौ फीट तक हो सकती है। चमक (Luster) : रेशम की अपनी ही प्राकृतिक चमक रहती है। यहीं कारण है कि रेशम को वस्त्रों की रानी कहा जाता है। मजबूती (Strength) : रेशम का तंतु सभी प्राकृतिक तंतुओं की अपेक्षा सबसे अधिक मजबूत होता है। हालांकि गीला होने पर इसकी शक्ति में कमी आती है। परन्तु सूखने पर यह पुनः शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। लचीलापन (Flexibility) : रेशम के तंतुओं में बहुत अधिक लचीलापन होता है। जिसके कारण खींचने पर यह बिना टूटे अपनी लंबाई से अधिक खींच जाते हैं। अवशोषकता (Absorbity) : रेशम के तंतु नमी सोख सकते हैं परन्तु जल्दी छोड़ते नहीं। ताप सहने की क्षमता (Heat Resistence) : रेशम के तंतु बहुत कोमल होने के कारण अधिक ताप नहीं सह पाते। अधिक ताप यह रेशम के तंतु नष्ह होने लगते है। इसलिए रेशम के वस्त्रों पर हल्की प्रेस ही करनी चाहिए। |
रासायनिक गुण/विशेषताएँ (Chemical Properties) जीवाणुओं का प्रभाव (Effect of Micro Organisms) : अधिक समय तक नमी वाली जगह पर रहने से रेशम के वस्त्रों पर फफूंदी लगने का डर रहता है। रेशम के वस्त्रों पर कीड़ों का प्रभाव भी पड़ सकता है। सूर्य की किरणों का प्रभाव (Effect of Sun Rays) : रेशमी वस्त्रों पर सूर्य की किरणों का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। रेशमी वस्त्रों की अधिक समय तक धूप में सुखाने से उनके रेशे कमजोर हो जाते हैं। क्षार का प्रभाव (Effect of Alkalies) : क्षार का रेशम के तंतुओं पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इसलिए रेशम के वस्त्रों को क्षारयुक्त साबुन से नहीं धोना चाहिए। रेशमी वस्त्रों से धाग-धब्बे छुड़ाने के लिए अमोनिया अथवा सुहागे का प्रयोग किया जा सकता है। रेशमी वस्त्र धोने के लिए केवल हल्के सोडे वाले साबुन का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा इनकी चमक फीकी पड़ जाती है। अम्ल का प्रभाव (Effect of Acids) : रेशमी वस्त्रों पर अम्ल का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अम्ल के कम तीव्र घोल से रेशमी वस्त्र सिकुड़ जाते हैं और उनकी चमक भी नष्ट हो जाती है। हल्के अम्ल जैसे- सिरका रेशम के तंतु पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है बल्कि इससे रेशम के वस्त्रों में अतिरिक्त चमक आ जाती है। |
रेशम के रेशों की वस्त्रों के लिए उपयोगिता (i) रेशम सुन्दर, आकर्षक, कोमल तथा महंगा वस्त्र है। इसलिए विशेष अवसरों के लिए उपयुक्त है। इसीलिए रेशम को “वस्त्रों की रानी” कहा जाता हैं। (ii) ताप का कुचालक होने के कारण रेशमी वस्त्रों को सर्दी में अधिक प्रयोग किया जाता है। (iii) रेशम की कटाई, सिलाई आदि आसान नहीं इसलिए यह एक महंगा वस्त्र है। इसकी चमक व लचक इससे बने परिधान को अत्यन्त आकर्षक बनाती हैं। (iv) रेशमी वस्त्रों पर रंग आसानी से तथा पक्के चढ़ते हैं। ये रंग चमकदार व चटकीले होते हैं। (v) रेशमी वस्त्रों पर सिलवटें नहीं पड़ती इसीलिए इन्हें अधिक इस्त्री करने की आवश्यकता नहीं होती। (vi) रेशमी वस्त्र पसीना, क्षार युक्त साबुन, घर्षण आदि से जल्दी खराब हो जाते हैं इसलिए ये घरेलू उपयोग के वस्त्र बनाने के लिए उपयुक्त नहीं। इन वस्त्रों को रोज नहीं पहना जा सकता। साधारणतः शुष्क धुलाई विधि (dry cleaning) द्वारा ही इन्हें साफ किया जाता है। |
5. रेयॉन (Rayon) रेयॉन पुनरुत्पादित सेलुलोज से निर्मित मानव निर्मित तंतु है। इसे बाँस, लकड़ी की लुग्दी तथा विभिन्न रसायनों को मिलाकर विशेष विधि द्वारा बनाया जाता है, क्योंकि इनका उत्पादन प्राकृतिक रूप से मिलने वाले उत्पादों से किया जाता है। इसलिए यह न तो पूरी तरह से एक कृत्रिम तंतु है और न ही एक प्राकृतिक तंतु है। वास्तव में यह एक अर्द्ध कृत्रिम तंतु है। कपड़ा उद्योग में रेयॉन को विस्कोस रेयॉन या कृत्रिम रेशम (artificial silk) के नाम से भी जाना जाता है। रेयॉन रेशम का एक अच्छा विकल्प है। |
रेयॉन रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Rayon Fibre) भौतिक गुण/विशेषताएँ (Physical Properties) (i) रेयॉन में प्राकृतिक तंतुओं के लगभग सभी गुण पाये जाते हैं। |
रासायनिक गुण/विशेषताएँ (Chemical Properties) (i) रेयॉन पर सामान्य ताप पर हाइड्रोक्लोरिक अम्ल व नाइट्रिम्ल का प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु दाग-धब्बे उतारने के लिए ऑक्जलिक अम्ल का प्रयोग उन्हें कमजोर कर देता है। |
रेयॉन के वस्त्रों की उपयोगिता (i) रेयॉन के वस्त्र सिल्क से अधिक मगर सूत से कम मजबूत होते हैं। |
6. नायलॉन (Nylon) नायलॉन रासायनिक विधि द्वारा बनाया गया सबसे पहला मानव निर्मित कृत्रिम तंतु है जिसे जादुई तंतु या Magic Fibre के नाम से भी जाना जाता है। नायलॉन का निर्माण एक जटिल रासायनिक प्रक्रिया द्वारा होता है। ऐडीपिक अम्ल तथा हैक्सा-मिथाईलीन डाई अमीन (Hexa-Methylene Diamine) नामक दो यौगिकों के संयोग से नायलॉन लवण का मिश्रण तैयार किया जाता है। इस लवण को पिघलाकर पंप द्वारा दबाव देकर स्पिनरेट (spinnerette) के छिद्रों से निकालते हैं तो महीन लम्बे तंतु बनते हैं जो हवा के संपर्क में आते ही सूख जाते हैं। इन तंतुओं को नम करके ऐंठन दी जाती है जिससे बटने के बाद अनेक तंतु मिलकर धागे के रूप में बाहर आते हैं। नायलॉन तापसुनम्य (thermoplastic) रेशा है अर्थात् इसे गर्म करके मुलायम बनाया जा सकता है। इसके कड़ेपन के कारण इसका प्रयोग ब्रश, बेल्ट, कंघी, बर्तन, टायर, तारें, शीटें आदि बनाने के लिए भी किया जा सकता है। पूरे विश्व में नायलॉन की होजरी व जुराबें बहुत प्रसिद्ध हैं। |
नायलॉन रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Nylon Fibre) भौतिक गुण/विशेषताएँ (Physical Properties) (i) रचना (Structure) : नायलॉन एक तापसुनम्य (thermoplastic) रासायनिक रेशा है। नायलॉन के तंतु गोलाकार, चमकदार, सीधे और चीकने होते है। (ii) लंबाई (Length) : इसकी लंबाई आवश्यकतानुसार नियंत्रित की जा सकती है। (iii) रंग एवं चमक (Colour and Luster) : मानव निर्मित कृत्रित तंतु होने के कारण इन्हें मनचाहे रंगों में आवश्यकतानुसार चमक देकर बनाया जा सकता है। (iv) मजबूती (Strength) : नायलॉन के तंतु बहुत ही मजबूत एवं हल्के होते है। (v) प्रतिस्कंदता (Regain Originality) : नायलॉन के तंतुओं में प्रतिस्कंदता का गुण पाया जाता है। इसलिए नायलॉन से बने वस्त्रों में सिलवटें नहीं पड़ती। (vi) सिकुड़न (Shrinkage) : नायलॉन के तंतु सिकुड़ते नहीं है। इसलिए नायलॉन से बने वस्त्र लंबे समय अपना आकार तथा आकृति बनाए रखते हैं। (vii) अवशोषकता (Absorbity) : नायलॉन के तंतुओं में अवशोषकता का गुण न के बराबर होता है। इसलिए नायलॉन वस्त्र जल्दी गीले नहीं होते। पानी इनकी सतह पर गिरते ही फिसल जाता हैं। नायलॉन से बने वस्त्र धुलाई के उपरांत बहुत जल्दी सूख जाते है। (viii) ताप की संवहाकता (Conductivity in Heat) : नायलॉन के तंतु ताप के कुचालक होते हैं। इसलिए नायलॉन से बने वस्त्रों को अधिकतर ठण्डे मौसम में पहने जाते है। (ix) ताप का प्रभाव (Effect of Heat) : अधिक तापमान पर नायलॉन के तंतुओं पर कुप्रभाव पड़ता है। अधिक ताप पर नायलॉन के तंतु पिघल जाते हैं। इसलिए इनके वस्त्रों को बहुत हल्की इस्त्री से प्रेस करना चाहिए। (x) स्वच्छता (Cleanliness) : नायलॉन की सतह चिकनी होती है, जिसके कारण धूल के काण उस पर नहीं चिपकते। इसलिए नायलॉन से बने वस्त्र जल्दी गंदे नहीं होते हैं। (xi) टिकाऊपन (Durability) : नायलॉन के तंतु बहुत मजबूत और लचीले होते हैं। इसलिए नायलॉन के बने वस्त्र इतने टिकाऊ होते हैं कि इन्हें फटने के कारण नहीं बल्कि सिलाई उधड़ने, रंग फीका पड़ जाने या उनसे मन भर जाने के कारण त्यागा जाता है। |
रासायनिक गुण/विशेषताएँ (Chemical Properties) (i) जीवाणुओं एवं कीड़ों का प्रभाव (Effect of Micro Organisms and Insects) : नायलॉन के वस्त्रों पर कीड़ो अथवा फफूंदी का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इन्हें आसानी से संग्रह किया जा सकता है। (ii) रंगों का प्रभाव (Effect of Colours) : नायलॉन के वस्त्र आसानी से मनचाहे रंगों में रंगे जा सकते हैं। हालांकि ज्यादा देर तक धूप सूखाने से नायलॉन के वस्त्रों का रंग उड़ भी जाता है। (iii) अम्ल का प्रभाव (Effect of Acids) : सभी प्रकार के तेज अम्ल नायलॉन के तंतुओं को गला देते हैं। (iv) क्षार का प्रभाव (Effect of Alkalies) : क्षार का नायलॉन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इन्हें क्षारयुक्त साबुन से आसानी से धोया जा सकता है। नायलॉन तंतु की वस्त्रों के लिए उपयोगिता |
नायलॉन तंतु की वस्त्रों के लिए उपयोगिता (i) नायलॉन तंतु से बने वस्त्र कोमल, टिकाऊ, मुलायम तथा हल्के होते हैं। ये प्रतिदिन प्रयोग में लाए जा सकते हैं। (ii) नायलॉन पर रगड़ व क्षार का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता अतः इसकी धुलाई व रखरखाव आसान है। इस पर सिलवटें भी नहीं पड़ती इसलिए पहनने में ये वस्त्र सुविधाजनक होते हैं। (iii) इन वस्त्रों में लचीलापन होता है जिससे ये ज्यादा मुड़ने वाली जगहों के लिए उपयुक्त होते हैं जैसे कि- जुराबें, होजरी, बनियान आदि में। (iv) नायलॉन के वस्त्र लम्बे समय तक अपनी शक्ति तथा आकार बनाए रखते हैं तथा जल्दी फटते नहीं। (v) नायलॉन से वस्त्रों के अलावा टायर, पैराशूट, छतरी, रस्सी, तिरपाल आदि भी बनाए जाते हैं। (vi) नायलॉन तंतुओं का प्रयोग अन्य रेशों के साथ सम्मिश्रित करके भी किया जाता है जैसे- नायलॉन तथा कॉटन। (vii) नायलॉन तंतुओं का प्रयोग वस्त्र में किसी विशेष स्थान पर प्रबलन देने के लिए भी किया जाता है जैसे- तिरपाल के अन्दर की ओर तथा जुराबों के पंजे में आदि। |
7. पॉलिएस्टर (Polyester) पॉलिएस्टर-टेरीलीन अथवा डैकरॉन भी एक मानव निर्मित कृत्रिम तंतु है, जो रासायनिक पदार्थों द्वारा बनाया जाता है। इसकी खोज 1946 में इंग्लैंड में टेरीलीन के नाम से हुई। 1953 में टेरीलीन तंतु में कुछ सुधार के पश्चात ड्यू-पोंट कम्पनी ने पॉलिएस्टर का निर्माण आरंभ किया तथा इसे डैक्रॉन नाम दिया। |
पॉलिएस्टर रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Polyester Fibre) भौतिक गुण/विशेषताएँ (Physical Properties) (i) रचना (Creation) : पॉलिएस्टर रासायनिक तत्वों के मेल से बनाया गया एक रासायनिक रेशा है। (ii) लंबाई (Length) : पॉलिएस्टर रेशों की लंबाई आवश्यकतानुसार नियंत्रित की जा सकती है। (iii) चमक (Luster) : मानव निर्मित कृत्रित तंतु होने के कारण पॉलिएस्टर को मनचाहे रंगों में आवश्यकतानुसार चमक देकर बनाया जा सकता है। (iv) मजबूती (Strength) : यह बहुत मजबूत एवं हल्का रेशा है। पॉलिएस्टर के तंतु सूखी व गीली दोनों अवस्थाओं में मजबूत रहते है। (v) प्रतिस्कंदता (Regain Originality) : पॉलिएस्टर में प्रतिस्कंदता का गुण पाया जाता है। इसलिए पॉलिएस्टर से बने वस्त्रों में सिलवटें नहीं पड़ती। (vi) सिकुड़न/लचीलापन (Shrinkage/Flexibility) : पॉलिएस्टर के तंतुओं को खींचकर लंबा नहीं किया जा सकता है, बल हटाने पर यह फिर से अपने वास्तविक आकार में आ जाते है। इसलिए पॉलिएस्टर के वस्त्र सिकुड़ते नहीं है, जिससे यह लंबे समय अपना आकार तथा आकृति बनाए रखते हैं। (vii) जल का अवशोषण (Absorbity) : पॉलिएस्टर में पानी सोखने की क्षमता बहुत कम होती है। इसलिए पॉलिएस्टर वस्त्रों पर लगे दाग कपड़े की ऊपरी सतह पर ही रह जाते है। पॉलिएस्टर से बने वस्त्रों को आसानी से धोया जा सकता है तथा यह वस्त्र जल्दी सूख भी जाते है। (viii) ताप की संवहाकता (Heat Conductivity) : पॉलिएस्टर के रेशे ताप के कुचालक तथा अत्यंत ज्ववनशील होते हैं। अधिक ताप पर पॉलिएस्टर के रेशे पिघल जाते है या जल जाते है। इसलिए इनके वस्त्रों को बहुत हल्की इस्त्री से प्रेस करना चाहिए। (ix) स्वच्छता (Cleanliness) : पॉलिएस्टर की सतह चिकनी होती है जिससे कि धूल के काण इन पर नहीं चिपकते । इसलिए पॉलिएस्टर के वस्त्र कम गंदे होते हैं। |
रासायनिक गुण/विशेषताएँ (Chemical Properties) (i) जीवाणुओं एवं कीड़ों का प्रभाव (Effect of Micro Organisms and Insects) : शुद्ध पॉलिएस्टर के वस्त्रों पर कीड़ों अथवा फफूंदी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इन वस्त्रों को आसानी से संग्रहित किया जा सकता है। (ii) रंगों का प्रभाव (Effect of Colours) : पॉलिएस्टर के वस्त्र आसानी से मनचाहे रंगों में रंगे जा सकते हैं। (iii) अम्ल का प्रभाव (Effect of Acids) : तेज अम्ल पॉलिएस्टर के रेशों को नष्ट कर देते हैं। हालांकि हल्के अम्ल का पॉलिएस्टर के रेशों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (iv) क्षार का प्रभाव (Effect of Alkalies) : सभी प्रकार के सांद्रित क्षार पॉलिएस्टर को कमजोर कर देते है। |
पॉलिएस्टर से बने वस्त्रों की उपयोगिता पॉलिएस्टर तंतु तथा उससे बने वस्त्र मुलायम, चमकदार तथा स्पर्श पर गर्म महसूस होते हैं। ये अधिक गर्म मौसम में पहनने योग्य नहीं होते। हल्के सर्द मौसम में ये पहनने में आरामदायक लगते हैं। इनका रख-रखाव आसान होता है। इन्हें आसानी से धोया, सुखाया जा सकता है तथा इनसे धब्बे आसानी से छुट जाते हैं। इन वस्त्रों पर सिलवटें नहीं पड़ती अतः इन्हें इस्त्री करने की भी आवश्यकता नहीं होती। अम्ल, क्षार तथा कार्बनिक यौगिकों का भी इन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इन वस्त्रों पर कीड़े, फफूंदी आदि भी नहीं लगते। अतः यह ज्यादा समय तक चलते हैं। पॉलिएस्टर का प्रयोग पर्दे, फर्नीचर तथा फर्श की सजावट में प्रयोग होने वाले कपड़े में किया जाता है। औद्योगिक वस्तुएँ जैसे रस्सी, मछली पकड़ने का जाल, टायर, मशीन के पट्टे आदि भी पॉलिएस्टर के बनते हैं। आधुनिक युग में पोलिएस्टर की नलियाँ हृदय सर्जरी में प्रयोग की जा रही है। |
8. एक्रीलिक (Acrylic) एक्रीलिक भी एक प्रकार का मानव निर्मित कृत्रिम रेशा है। यह ऊन से इतना मिलता-जुलता प्रतीत होता है कि कई विशेषज्ञ भी दोनों में अंतर नहीं बता सकते। इसे सामान्यतया भी कैशमिलॉन कहा जाता है। यह ऊन के अपेक्षाकृत सस्ता होता है। |
एक्रीलिक रेशों के गुण/विशेषताएँ (Properties of Acrylic Fibre) (i) सभी मानव निर्मित रेशों की तरह एक्रीलिक के रेशों की लंबाई, व्यास और महीनता निर्माता द्वारा नियंत्रित की जाती है। |
9. इलास्टोमेरिक रेशे (Elastomeric Fibres) इलास्टोमेरिक रेशों से बने कपड़े को उसके वास्तविक माप से लगभग दो गुणा तक खींचा (stretch) जा सकता है। इस रेशे से बने वस्त्रों की सबसे बड़ी खूबी यह भी हैं कि यह खींचने के बाद पुनः अपने वास्तविक रूप/माप में आ जाते है। रबड़, स्पैन्डेक्स, लाइक्रा, एनीडेक्स इलास्टोमेरिक रेशों से बने कपड़ों के उदाहरण हैं। इन रेशों से बने कपड़े अपनी अच्छी प्रत्यास्थता (elasticity) तथा बढ़ाव (elongation) जैसे गुणों के कारण काफी लोकप्रिय हैं। |
सूत (Yarns) इस अध्याय में अभी तक पढ़ने के बाद आप समझ चुके होंगे कि कपड़े की मूल इकाई ‘तंतु’ है। इसके साथ-साथ आपने विभिन्न प्रकार के तन्तुओं की विशेषताओं के विषय में भी पढ़ा है। शुरुआत में तंतु वस्त्र बनाने की दृष्टि से काफी कमजोर होते हैं। इसलिए वस्त्र बनाने से पहले इन तंतुओं को परिष्कृत (finish) किया जाता है, ताकि इन्हें वस्त्र निर्माण के लायक बनाया जा सके। वस्त्र निर्माण की प्रक्रिया, तंतुओं द्वारा सूत (yarn) निर्माण से शुरू होती है। इस सूत से ही कपड़ा बनाया जाता है। |
तंतु दो प्रकार के होते है- 1. लंबे तंतु (Filament) : लम्बे तंतुओं को फिलामेंट कहा जाता है। फिलामेंट तंतुओं द्वारा बने कपड़ों की ऊपरी सतह चिकनी व चमकदार होती है तथा जल्दी गन्दी नहीं होती। रेशम का तंतु व कृत्रिम तंतु लम्बे तंतु होते हैं। 2. छोटे तंतु (Staple) : छोटे तंतुओं को स्टेपल कहते हैं। स्टेपल तंतुओं द्वारा बने कपड़ों की ऊपरी सतह रोएंदार होती है जिस कारण वे त्वचा से चिपकते नहीं। सूत तथा ऊन के तंतु स्टेपल तंतु अर्थात् छोटे होते हैं। |
तंतुओं के समूह को ऐंठन देने पर प्राप्त धागे को सूत कहा जाता है। तंतु चाहे छोटे हो या बड़े सभी से सूत (धागा) बनाया जा सकता है। उलझे हुए तंतुओं को लंबाई के अनुसार अलग-अलग करके उन्हें सीध किया जाता है। फिर उन्हें इकट्ठा करके ऐंठन (twist) दी जाती है। ऐंठन द्वारा छोटे-छोटे तंतु इकट्ठे हो जाते हैं जिससे उन्हें मजबूती मिलती है। सूत में ऐंठन दो प्रकार से दी जाती है- (i) S ऐंठन : बाएँ हाथ की ओर से अंग्रेजी के अक्षर S आकार में ऐंठन दी जाती है। किसी भी रेशे में उसके प्रति इंच में घुमावों या बलों की संख्या को धागे की ऐंठन (twist per inch or tpi) का नाम दिया गया है। आमतौर पर फिलामेंट में प्रति इंच 4-5 घुमाव दिए जाते हैं और स्टेपल तंतु में प्रति इंच 15 घुमाव तक दिए जाते हैं। |
सूत प्रसंस्करण (Yarn Processing) प्राकृतिक स्टेपल रेशों से सूत को संसाधित करने की प्रक्रिया को कताई (spinning) कहते हैं तथा कताई सूत को संसाधित करने का अंतिम चरण होता है। रेशे को सूत में परिवर्तित करने के निम्नलिखित चरण होते हैं- सफ़ाई (Cleaning) : प्राकृतिक रेशों में आमतौर पर उनकी प्राप्ति के स्रोत के आधार पर कई अशुद्धियाँ पाई जाती है जैसे कि- कपास में बीज अथवा पत्तियाँ, ऊन में टहनियाँ और ऊर्णस्वेद इत्यादि। सफाई के चरण में सबसे पहले इन अशुद्धियों को हटाया जाता है, रेशों को अलग किया जाता है और लैप्स (rolled sheets of loose fibres) में परिवर्तित किया जाता है। पूनी बनाना (Making into a Sliver) : इस चरण में लैप्स को खोल कर सीधा किया जाता है, इस प्रक्रिया को कार्डिंग/धुनना (carding) और कॉम्बिंग/झाड़न (combing) कहा जाता है। यह प्रक्रिया लगभग वैसी ही होती है जैसे कि- बालों में कंघी करना तथा उन पर ब्रश करना। कार्डिंग में रेशों को पहले अलग-अलग किया जाता है और उन्हें सीधा एक-दूसरे के समानांतर रखा जाता है। बेहतरीन कपड़े के लिए लैप्स की धुनाई के बाद उसकी कॉम्बिंग की जाती है। इस प्रक्रिया से छोटी-मोटी अशुद्धियाँ और छोटे-छोटे रेशे दूर हो जाते हैं। तत्पश्चात् लैप को कीप के आकार के यंत्र से निकाला जाता है जिससे इसकी पूनी बनाने में सहायता मिलती है। पूनी खुले रेशों की रस्सी जैसा ढेर होता है जिसका व्यास 2-4 सेंटीमीटर होता है। तनुकरण, तानना और बटना (Attenuating, Drawing Out and Twisting) : रेशों को लंबे तंतुओं में परिवर्तित करने के बाद उन्हें आवश्यकता अनुरूप आकार में परिवर्तित किया जाता है, इस प्रक्रिया को तानना अथवा तनुकरण (attenuation) कहा जाता है। समरूपता के लिए कई पूनियों को एक साथ जोड़ा जाता है और फिर उन्हें धीरे-धीरे ताना जाता है ताकि वे लंबी और बेहतर हो जाएँ। तानने के पश्चात् पूनी को रोविंग मशीन (पूनी बनाने वाली मशीन) में डाला जाता है, जहाँ इसे तब तक तनु (attenuated) किया जाता है जब तक वह अपने मूल व्यास 1/4-1/8 के माप की नहीं हो जाती रशों को जोड़े रखने के लिए इन्हें और बटा जाता है। फिर कताई के द्वारा तंतु को सूत के रूप में अंतिम आकार दिया जाता है। इसे अपेक्षित शुद्धता के लिए और फैलाया जाता है और वांछित मात्रा में गूँथ कर शंकु (कोन) पर लपेट दिया जाता है। सभी मानव निर्मित रेशों को पहले तंतु के रूप में ही तैयार किया जाता है। सूत एक तंतु या बहुत सारे तंतुओं को मिलाकर तथा उन्हें गूंथकर बनाया जा सकता है। मानव निर्मित रेशों को प्राकृतिक रेशों के विपरीत स्टेपल लंबाई के रेशों में भी काटा जा सकता है (हालांकि स्टेपल लंबाई के रेशों की आवश्यकता केवल तभी पड़ती है जब मिश्रित या सममिश्रित कपड़ा बनाना हों, जैसे कि- टेरीकोट (टेरीन और सूती), ‘टेरीवूल’ (टेरीन और ऊन) अथवा पोलीकोट (रेयान और सूती))। तत्पश्चात् इनकी भी कताई प्राकृतिक रेशों के अनुरूप ही की जाती है। इसे काता हुआ सूत (स्पन सूत) भी कहा जाता है। जब, तब स्टेपल लंबाई के रेशों की भी आवश्यकता होती है। |
सूत संबंधी पारिभाषित शब्दावली (Terminologies Related to Yarn) सूत निर्माण संबंधी प्रक्रिया को समझने से पहले आपको सूत संबंधी विभिन्न पारिभाषिक शब्दावलियों को समझना जरूरी है- (i) सूत संख्या (Yarn Number) : सूत संख्या का तात्पर्य सूत की गुणवत्ता अर्थात् सूत की लम्बाई एवं मजबूती से है। सरल शब्दों में कहें तो सूत संख्या धागे की गुणवत्ता का सूचक है। जिस धागे में सूत संख्या जितनी अधिक होगी वह धागा उतना ही बेहतर माना जाता है। उदाहरण के लिए, धागे की रीलों के लेबल पर कुछ संख्याएँ जैसे कि- 20, 30, 40 अंकित होती है। जिस भी रील के लेबल पर सबसे अधिक संख्या अंकित होगी वह रील अन्य रीलों की अपेक्षा सबसे बेहतर मानी जाएगी। (ii) सूत की बटें (Yarn Twist) : रेशों को सूत में परिवर्तित करने के दौरान रेशों को साथ जोड़ने के लिए बटें बनाई जाती हैं। इन्हें ट्विस्ट प्रति इंच (टी.पी.आई. या बटें प्रति इंच) कहा जाता है। ढीले बटे हुए सूत मुलायम और अधिक चमकीले होते हैं, जबकि कसकर बटे गए सूत में लकीरें होती हैं, जैसे कि- डेनिम वस्त्रों में। (iii) सूत और धागा (Yarn and Thread) : सूत और धागा मूलतः समान होते हैं। सूत शब्द अक्सर कपड़े के विनिर्माण में उपयोग किया जाता है जबकि धागा वह उत्पाद है जिसे कपड़ों को जोड़ने के लिए उपयोग में लाया जाता है। |
You Can Join Our Social Account
Youtube | Click here |
Click here | |
Click here | |
Click here | |
Click here | |
Telegram | Click here |
Website | Click here |