NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 2 (C) स्वयं को समझना-पहचान पर प्रभाव – स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं? (Understanding the Self-Influences on Identity How do we Develop a Sense of Self?) Notes In Hindi

NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (C) स्वयं को समझना-पहचान पर प्रभाव – स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं? (Understanding the Self-Influences on Identity How do we Develop a Sense of Self?)

TextbookNCERT
classClass – 11th
SubjectPhysical Education
ChapterChapter – 2(B)
Chapter Nameस्वयं को समझना-पहचान पर प्रभाव – स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं?
CategoryClass 11th Home Science Notes in hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 2 (C) स्वयं को समझना-पहचान पर प्रभाव – स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं? (Understanding the Self-Influences on Identity How do we Develop a Sense of Self?) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे:- शैशवावस्था के दौरान स्व का निर्माण (जन्म से 2 वर्ष, शैशवावस्था के दौरान स्वयं की विशेषताएँ, प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान स्वयं (3-6 वर्ष), मध्य तथा उत्तर बाल्यावस्था के दौरान स्वयं, किशोरावस्था के दौरान स्वयं और किशोरावस्था में ‘स्वयं’ की भावना की विशेषताएँ इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (C) स्वयं को समझना-पहचान पर प्रभाव – स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं? (Understanding the Self-Influences on Identity How do we Develop a Sense of Self?)

Chapter – 2 (C)

स्वयं को समझना-पहचान पर प्रभाव – स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं?

Notes

भूमिका (Introduction)

पिछले खंड (2-बी) में हमने जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान ‘स्वयं’ की विशेषताओं के विषय में अध्ययन किया था। लेकिन हम ‘स्वयं’ की भावना कैसे विकसित करते हैं और किसी व्यक्ति की पहचान के विकास को कौन-कौन सी स्थितियाँ प्रभावित करती हैं? इस खंड में हम इन्हीं विषयों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

हम जानते हैं कि कोई भी मनुष्य पहचान की भावना के साथ पैदा नहीं होता है। हमारे अनुभवों से अपने बारे में हम जो सीखते है तथा हमारे बारे में लोगों की प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप ‘स्वयं’ की भावना धीरे-धीरे विकसित होती है। हर व्यक्ति विभिन्न प्रकार के संबंधों से जुड़ा हुआ होता है, जैसे कि- परिवार, स्कूल, कार्यस्थल और समुदाय इत्यादि में उसके विभिन्न लोगों के साथ संबंध होते है। अपने आस-पास के लोगों साथ बातचीत एवं व्यवहार के परिणामस्वरूप तथा व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर व्यक्ति में स्व-बोध का विकास होता है।

अतः हम कह सकते है कि, किसी भी व्यक्ति के स्व-बोध के विकास में बहुत से लोगों का योगदान होता है। ‘स्वयं’ का निर्माण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यहाँ ‘निर्माण’ से तात्पर्य है कि- कोई भी व्यक्ति ‘स्वयं’ के बोध के साथ जन्म नहीं लेता बल्कि वह स्वयं के भाव को अपने अनुभवों एवं संबंधों के आधार पर स्वयं ही सृजित करता है और जैसे-जैसे व्यक्ति का विकास होता है वैसे-वैसे उसके स्व-बोध का भी विकास होता जाता है।

प्रारंभिक वर्षों के दौरान ‘स्वयं’ का विकास (Development of ‘Self’ During Early Years)

1. व्यक्तिगत पहचान को पहचानना (Identification of Personal Identity) :

शुरूआती दिनों में माता-पिता अपने बच्चों को अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग नाम से बुलाते है, जैसे कि- नानु, गुड्डू, शोना इत्यादि। फिर धीरे-धीरे बच्चा स्वयं से जुड़े नामों को खुद के साथ जोड़ना शुरू कर देता है। इसके अलावा माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य अक्सर दर्पण में या तस्वीरों में बच्चे के देखकर उसी नाम से इंगित करते हैं। जैसे-जैसे शिशु बोलना सीखता है वह ‘मैं’ और ‘मेरा’ जैसे शब्दों का सम्बोधन करना शुरू कर देता है। फिर धीरे-धीरे वह यह भी समझने लगता है कि ‘तुम’ और ‘तुम्हारे’ जैसे शब्दों का प्रयोग किसी अन्य व्यक्ति के लिए किया जाता है।

बच्चे के साथ खेलते समय, माता-पिता बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों की ओर इशारा करते और उनके नाम का उच्चारण करते है फिर वह केवल उच्चारण कर बच्चे को वहीं अंग चिह्नित करने के लिए कहते हैं। ऐसा नियमित रूप से करने से बच्चा कुछ ही समय में अपने शरीर के विभिन्न अंगों को पहचानने लगता है और धीरे-धीरे यह समझने लगता है कि वह दूसरों से भिन्न और अलग है।

2. स्वयं और बाहरी पर्यावरण के बीच अंतर करना (Differentiating Between Self and the External Environment) :

शिशुओं को धीरे-धीरे यह एहसास होने लगता है कि उसके कार्यों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब बच्चा किसी खिलौने को छूता है तो खिलौना अपनी जगह से हिल जाता है। इस प्रकार के अनुभवों से बच्चे को अपने आसपास के अन्य लोगों और वस्तुओं से अलग होने का एहसास होने लगता है।

हम पिछले खण्ड में पढ़ चुके है कि इस समय (लगभग 18 महीने के दौरान) बच्चा दर्पण में अपने प्रतिबिंब को पहचानने लगता है वह यह समझता है कि प्रतिबिंब में वह स्वयं है न कि कोई और बच्चा।

3. कारण और प्रभाव के बीच संबंध (Relationship Between Cause and Effect) :

जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है और बात करने में सक्षम होता जाता है, उसके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य बच्चे को स्वयं के बारे में बातें करने और उनका कारण बताने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।

उदाहरण के लिए, वे बच्चे से पूछते हैं, ‘आपने ऐसा क्यों किया?’ या ‘आप कैसा महसूस करते हैं?’ इस प्रकार के प्रश्नों से बच्चे को यह समझने में मदद मिलती है कि वह क्या अनुभव कर रहा है या उसमें कोई कार्य किन कारणों से किया। सरल शब्दों में कहें तो- बच्चों के साथ बातें करने से वह धीरे-धीरे स्वयं को परिभाषित करना सीखते जाते है।

4. देखभाल करने वालों और अन्य लोगों के साथ मौखिक-सामाजिक वार्ता के माध्यम से आत्म और पहचान की भावना का निर्माण करना (Constructing selfhood and sense of identity through verbal-social interactions with caregivers and others) :

बच्चे के आसपास के लोग और वस्तुएँ उसे उसकी क्षमताओं के विषय में बोध कराने में सहायता प्रदान करते है। आसपास के लोग बच्चे को उसके व्यवहार और क्षमताओं के बारे में प्रतिक्रिया देते हैं। उदाहरण के लिए, एक 6 साल का बच्चा जब अपने भोजन के बाद भोजन क्षेत्र को साफ करने में सहायता करता है, तो उसके माता-पिता उसे यह कहकर प्रोत्साहित करते है कि ‘यह अच्छी आदत है’ या ‘आप अच्छे बच्चे है।’

इस प्रकार का प्रोत्साहन बच्चे के स्वयं के बारे में विचारों में जुड़ता चला जाता हैं और धीरे-धीरे बच्चा अपनी
देखभाल करने वालो और अन्य लोगों के साथ मौखिक तथा सामाजिक वार्ता के माध्यम से आत्म और पहचान की भावना को निर्मित और फिर धीरे-धीरे विकसित करता जाता है।

स्व-बोध और पहचान की भावना विकसित करना (Developing a Sense of Self and Identity)
निम्न कारणों से हर व्यक्ति की पहचान भिन्न होती है, जैसे कि-

(i) जुड़वाँ बच्चों के अलावा हर व्यक्ति में जीन्स का ‘विशिष्ट समुच्चय’ (unique combination of genes) अलग होता है।
(ii) हर व्यक्ति के अपने अलग-अलग अनुभव होते हैं।
(iii) यदि किन्हीं कारणों से अनुभव एक जैसे भी हों तो भी हर व्यक्ति इन अनुभवों पर अलग-अलग प्रकार से अपनी अनुक्रिया करता हैं।

किशोरावस्था के दौरान पहचान के निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Identity Formation During Adolescence)

किशोरावस्था तीव्र गति से विकास की अवस्था है। इस अवस्था में विकास के विभिन्न आयाम जैसे- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा भावनात्मक विकास क्रमबद्ध न होकर एक साथ ही होते हैं। किशोरावस्था की संपूर्ण अवधि सभी किशोरों के लिए पहचान बनाने की सतत्प्र क्रिया की एक महत्वपूर्ण अवस्था है।

इस प्रक्रिया में जैविक व शारीरिक परिवर्तन, आनुवांशिकता, वातावरण, समाज व संस्कृति, संचार के
माध्यम व शिक्षा अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि सभी किशोरों पर इन कारकों के भिन्न-भिन्न प्रभाव होते हैं। यही कारक उनकी वैयक्तिक भिन्नता का आधार भी होते हैं। इस खण्ड में अब हम किशोरों के स्व-पहचान (identity formation) बनाने की प्रक्रिया में विभिन्न कारकों तथा उनके प्रभाव का अध्ययन करेंगे।

किशोरावस्था के दौरान किशोरों के पहचान बनाने की प्रक्रिया निम्न कारकों से सबसे अधिक प्रभावित होती
है-

किशोरावस्था के दौरान पहचान के निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Identity Formation During Adolescence)

(i) जैविक और शारीरिक परिवर्तन
(ii) पारिवारिक और मित्रवत् संबंधों में सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भ
(iii) भावात्मक परिवर्तन
(iv संज्ञानात्मक

1. जैविक और शारीरिक परिवर्तन (Biological and Physical Changes)

किशोरावस्था के दौरान हर किशोर कुछ ऐसे शारीरिक और जैविक परिवर्तनों से गुजरता है जो सबके लिए समान तथा एक निश्चित क्रम में होते है। जैसे कि- वृद्धि स्फुरण (growth spurt), शारीरिक अनुपात में वृद्धि (लम्बाई तथा भार), आंतरिक अंगों का विकास तथा लैंगिक परिवर्तन इत्यादि।

किशोरावस्था के आरम्भ में तीव्र गति से शारीरिक लम्बाई, भार तथा शारीरिक अनुपात में परिवर्तन को वृद्धि स्फुरण कहा जाता है। उपरोक्त परिवर्तनों कारण किशोरों में यौन परिपक्वता आती है- यौन परिपक्वता की आयु को यौवनारम्भ (puberty) कहा जाता है।

सरल शब्दों में कहें तो- यौन परिपक्वता का तात्पर्य उन शारीरिक परिवर्तनों से है जिनके कारण किशोर/किशोरियाँ प्रजनन के योग्य बन जाते है। लड़कियों में यौन परिपक्वता की आयु आमतौर पर 11 से 13 वर्ष के तथा लड़कों में 13 से 15 के बीच होती है।

लड़कियों में मासिक धर्म की शुरूआत को यौन परिपक्वता का बिन्दु माना जाता है। वैसे तो, लड़कों में यौन परिपक्वता की कोई विशिष्ट प्रक्रिया नहीं होती है, फिर भी शुक्राणुओं के उत्पादन की शुरूआत को यौन परिपक्वता माना जाता है। इसके अतिरिक्त किशोर-किशोरियों की लम्बाई में एक वर्ष के दौरान होने वाली अधिकतम वृद्धि को भी यौवनारम्भ माना जाता है।

लड़कियों की लम्बाई में वृद्धि मासिक धर्म की शुरूआत एक दम पहले और बहुत तेजी से होती है जबकि लड़कों में कुछ वयस्क रूपी विशेषताओं से पहले लम्बाई में वृद्धि होती है। किशोर/किशोरियों में यौवनारम्भ की औसत आयु उनकी संस्कृतियों के अनुरूप अलग-अलग होती है।

वह अवधि जिसमें शारीरिक और जैविक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप यौवनारम्भ होता है, यौवनावस्था(pubescence) कहलाती है।

किशोरकिशोरी
अंडकोष (वृषण) का विकास होनास्तनों के आकार में आरंभिक वृद्धि
आवाज में परिवर्तन की शुरूआतबगलों और जाघों में बालों का आना
बगलों और जाघों में बालों का आनाअधिकतम वृद्धि की आयु
वीर्य (सीमन) का पहली बार स्खलनमासिक धर्म
अधिकतम वृद्धि की आयुहोंठ तथा गालों पर छोटे-छोटे मुलायम
आवाज में स्पष्ट परिवर्तन अर्थात् भारी होनारोएँ की तरह बाल
दाढ़ी का आना

आमतौर पर अधिकांश किशोरियों में यौवनावस्था की अवधि 11 से 13 वर्ष के बीच होती है जबकि लड़कों में यह अवधि 13 से 15 वर्ष के बीच होती है। यौवनावस्था के दौरान किशोर/किशोरियों में निम्न परिवर्तन क्रमानुसार होते है।

शारीरिक एवं लैंगिक परिवर्तनों के कारण किशोरों की पहचान निर्माण की प्रक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव-

(i) किशोरावस्था में तीव्र गति से होते परिवर्तनों तथा माता-पिता व समाज की बढ़ती अपेक्षाओं के कारण किशोर स्वयं को सबसे अलग-थलग समझने लगते हैं व अक्सर हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। तीव्र शारीरिक व लैंगिक परिवर्तनों के फलस्वरूप कद व भार में अचानक वृद्धि होती है

जिसके कारण लड़कियों को लगता कि वे मोटी हो रही हैं। लड़के स्वयं की बदलती आवाज व दाढ़ी मूछों के कारण तनावग्रस्त हो जाते हैं। चेहरे पर मुँहासे व विपरीत लिंग के प्रति बढ़ता आकर्षण भी किशोरों के लिए चिन्ता का कारण बन जाता है।

(ii) मासिक धर्म की शुरुआत कष्टप्रद होती है तथा किशोरियों को इन परिवर्तनों के प्रति अभ्यस्त होने में कुछ समय लगता है।

(iii) माता-पिता द्वारा लगाई गई पाबन्दियों अथवा बार-बार टोकने “कि अब तुम बड़े हो गए हो” के कारण भी किशोरों में हीनता की भावना आ जाती है। किशोरों से परिपक्व व्यवहार की अपेक्षा तथा किशोरियों को अपने हमउम्र भाईयों से कम आजादी व सुविधा उन्हें अन्तर्मुखी बना देती है।

(iv) हमारे समाज में आज भी बड़े होते बच्चों को उनके शारीरिक एवं लैंगिक परिवर्तनों के विषय में उचित जानकारी नहीं दी जाती। माता-पिता एवं अध्यापक, किशोरों से विषमलिंगीय आकर्षण एवं उनके बदलते व्यवहार के बारे में बात न करना ही बेहतर समझते हैं। उचित जानकारी एवं मार्गदर्शन का अभाव बहुत से किशोर व किशोरियों को क्रोधी, आक्रामक तथा समाज के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण वाला बना देता है।

(V) शारीरिक परिवर्तनों के प्रति अभ्यस्त होने पर किशोर अधिक आत्मविश्वासी महसूस करते हैं।

हालांकि किशोरावस्था में यौवनारम्भ की शुरूआत के कारण शरीर में होने वाले शारीरिक परिवर्तन सार्वभौमिक होते हैं परंतु हर किशोर पर इन परिवर्तनों का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव उनकी संस्कृतियों के अनुरूप अलग होता है। यहीं नहीं एक ही संस्कृति के किशोरों में भी प्रत्येक किशोर पर इनका प्रभाव अलग-अलग प्रकार से पड़ता है।

2. सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ (Socio-cultural Contexts)

किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ कई सामाजिक परिवर्तन भी होते हैं। यह परिवर्तन किशोरों के व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं। किशोरावस्था में आयु बढ़ने के साथ-साथ किशोरों की सामाजिक प्रक्रिया की योग्यता में भी परिपक्वता आती है, जिसके कारण किशोर ऐसे सभी सामाजिक गुणों को धारण करते हैं जिनके द्वारा समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त होता है। इस प्रक्रिया को ‘सामाजीकरण’ या ‘सामाजिक ‘विकास’ कहते हैं।

सामाजिक विकास का शाब्दिक अर्थ है- “सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार तथा दूसरों के साथ समन्वय स्थापित करने की क्षमता “।

सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन किशोरों के विकास को कैसे करते है? (How Does Social and Cultural Changes Influence Identity Development in Adolescents)

शारीरिक परिवर्तनों की तरह बदलती सामाजिक अपेक्षाएँ भी किशोरावस्था के दौरान पहचान निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण पहलू है। किशोरों की अपनी पहचान बनाने में उनके परिवार, साथी, विद्यालय, पास-पड़ोस, समाज व संस्कृति का बहुत प्रभाव पड़ता है।

(i) किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक परिवर्तनों के प्रति समाज के विभिन्न वर्गों की अलग-अलग अनुक्रिया होती है, जैसे कि- पारंपरिक भारतीय समाज में यौवनारम्भ के साथ ही लड़कियों पर कई प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं जबकि लड़के पहले की तरह ही स्वतंत्र होते हैं।

उसी प्रकार मनोरंजन अथवा कॅरिअर संबंधी कुछ क्षेत्र लड़कियों के लिए उपयुक्त नहीं माने जाते। इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि पारंपरिक समुदाय के किशोर/किशोरियों के ‘स्वयं’ और ‘पहचान’ के घटक (elements) शहरों में रहने वाले किशोर/किशोरियों की अपेक्षा एकदम अलग होते है।

(ii) बहुत-सी पश्चिमी संस्कृतियों (जैसे अमेरिका और ब्रिटेन) में किशोरों से पूर्णतः आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा की जाती है, कई मामलों में तो उनसे अपेक्षा की जाती है वे परिवार से अलग जाकर अपना घर बसाएँ। जबकि, भारतीय संस्कृति में, अधिकतर किशोर अपने माता-पिता पर ही निर्भर होते हैं अर्थात् वह काफी हद तक परिवार के नियंत्रण में रहते हैं।

भारत में अधिकांश किशोर विशेषकर ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले किशोर, अपने परिवार की आय में योगदान देना भी शुरू कर देते है। वह एक प्रकार से वयस्क की भूमिका निभाने लगते हैं, पर फिर भी अपने परिवार से अलग नहीं होते, बल्कि उनका आय अर्जित करने का एक उद्देश्य अक्सर परिवार के सदस्यों के कल्याण से जुड़ा होता है। अतः पश्चिमी तथा पूर्वी सांस्कृतिक परिवेशों में किशोर के ‘स्वयं’ का विकास पूर्णतः अलग-अलग प्रकार का होगा।

(iii) हमारे देश में विभिन्न समुदायों (community) के किशोरों में भी अनेक भिन्नताएँ पाई जाती है। ऐसे समुदाय जहाँ आज भी व्यवसाय (occupation) के कोई विशेष साधन उपलब्ध नहीं है वहाँ के किशोर अधिकतर अपने पारंपरिक पारिवारिक व्यवसायों (traditional family occupation) को ही अपना लेते हैं क्योंकि बचपन से वह व्यवसाय में परिवार का हाथ बँटाते रहे हैं तथा धीरे-धीरे उसे सीखते भी रहे हैं।

ऐसे परिवेश में किशोर जल्दी ही अपनी जिम्मेदारियाँ सँभालकर विवाह करके अपना परिवार बना लेते हैं, परंतु इनकी पहचान प्रायः अपने परिवार से अधिक प्रभावित रहती है। ऐसे परिवारों में किशोरों का अपने बड़ों से किसी प्रकार का मतभेद भी नहीं होता क्योंकि वह वहीं कर रहे है जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है। इसके परिणामस्वरूप स्वयं की भावना के विकास के दौरान किसी प्रकार के भ्रम या संदेह की संभावना नहीं रहती।

(iv) जिन समुदायों और परिवारों में किशोरों के पास रोजगार अथवा व्यवसाय के अनेक अवसर उपलब्ध होते है, जहाँ प्रौद्योगिकी उन्हें नए-नए रोजगारों के अनेकों अवसर प्रदान करती है। ऐसे किशोर को अपनी पसंद के व्यवसाय के लिए तैयार होने के लिए लम्बे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। प्रशिक्षण अवधि के दौरान किशोर मुख्य रूप से अपने अभिभावकों पर ही निर्भर रहता है।

प्रशिक्षण काल की अवधि जितनी लम्बी होती है किशोरावस्था की अवधि भी उतनी ही बढ़ जाती है, जिसके कारण किशोर देर से वयस्कता में कदत रखते है। विभिन्न व्यावसायिक विकल्पों की उपलब्धता तथा माता-पिता की अपेक्षाकाओं के विपरीत अपनी पसंद का व्यवसाय चुनने के कारण किशोरों का अपने अभिभावकों तथा समाज के अन्य लोगों के साथ विवाद हो सकता है।

(V) भारतीय परिवेश के समुदायों एवं परिवारों में किशोरों का खुलकर अपनी मन की बात करने की संस्कृति नहीं है और यदि किशोर हिम्मत जुटाकर अपने बारे में कोई प्रस्ताव उनके सामने रखे तो भी वह सहन नहीं किया जाता है। यही कारण है कि पढ़े-लिखे परिवारों में भी किशोरों को अपनी मर्जी से अपनी पहचान बनाने के अवसर कम मिलते है,

जैसे कि- डॉक्टर माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर ही बनाना चाहते है, चाहे उनके किशोर बच्चों की रुचि पायलट, शेफ, वैज्ञानिक, इत्यादि बनने में हो।

(vi) पारंपरिक भारतीय समुदायों में किशोरों में स्वयं को स्वतंत्र तथा आत्मनिर्भर रूप से दर्शाना और अपने बारे में बात करने का विचार एक सामान्य बात नहीं है। यही नहीं इस प्रकार की प्रवृत्ति को अक्सर न तो बढ़ावा ही दिया जाता है और न ही सहन किया जाता है।

कई भारतीय स्वयं को मुख्यतः अपनी एक या दूसरी भूमिका जैसे- पुत्र/पुत्री, माता/पिता, बहन/भाई के रूप में परिभाषित करते हैं। अन्य शब्दों में, वे अक्सर स्वयं के बारे में अपने परिवार और समुदाय के संदर्भ में ‘मैं’ की बजाय ‘हम’ के रूप में बात करते हैं।

उदाहरण के लिए, एक किशोरी से विवाह के बारे में उसकी राय पूछने पर वह अक्सर यही कहेंगी कि, “मैं चाहूँगी कि मेरे माता-पिता ही मेरी शादी तय करें” बजाय इसके कि, “हमारे परिवार में माता-पिता शादी तय करते हैं।” अत: हम यह देख सकते हैं कि स्व-बोध के निर्माण में सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ कितने महत्वपूर्ण है। हालांकि सांस्कृतिक प्रभाव भी प्रत्येक परिवार और प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप अलग-अलग होते हैं।

परिवार पहचान-बोध के विकास को कैसे प्रभावित कर सकता है? (How Family Can Influence Identity Development in Adolescents?)

किशोरों के पहचान निर्माण को ऐसे पारिवारिक परिवेश से प्रोत्साहन मिलता है जहाँ उन्हें स्वयं की राय बनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ परिवार के सदस्यों के बीच मधुर संबंध होते हैं। ऐसे परिवेश में किशोर को अपने बढ़ते हुए सामाजिक दायरे को जानने और समझने के लिए एक सुरक्षित आधार मिलता है।

विभिन्न अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि सुदृढ़ और स्नेहमय पालन-पोषण (affectionate parenting) से पहचान का स्वस्थ विकास होता है। ‘स्नेहमय’ पालन-पोषण का अर्थ है कि अभिभावक उत्साही, स्नेही और बच्चे के प्रयासों और उपलब्धियों का समर्थन करने वाले हों।

वे हर छोटी बड़ी उपलब्धि पर बच्चे की प्रशंसा करते हो, उन्हें प्रोत्साहित करते हो, उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों में विशेष रुचि एवं उत्साह दिखाते हो, किशोरों की भावनाओं के प्रति संवेदनपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हो और उसके व्यक्तित्व और उसकी राय को समझते हो। इस प्रकार के पालन-पोषण से बच्चों में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आती है।

मित्र समूह पहचान-बोध के विकास को कैसे प्रभावित करता है? (How Peers Can Influence Identity Development in Adolescents?)

किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें किशोरों को अपने मित्रों/मित्र समूह के सहयोग और स्वीकार्यता की बहुत आवश्यकता होती है। किशोरावस्था में किशोर यह समझने लगता है कि परिवार के सदस्य उसकी भावनाओं को अब पहले जैसा नहीं समझते तथा उससे अधिक अपेक्षाएँ रखने लगे हैं। ऐसी स्थिति में किशोर किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढता है जिससे वह अपने मन की बात कह सके।

ऐसे में उसे अपने हमउम्र किशोर सबसे उपयुक्त प्रतीत होते हैं जो स्वयं भी इसी स्थिति से गुजर रहे होते हैं।
किशोरावस्था में मित्रों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है क्योंकि किशोर अपना अधिकतर समय मित्रों के साथ बिताना पसन्द करते हैं। किशोरों की भाषा, विचार, व्यवहार, सोच, पसन्द-नापसन्द तथा कपड़ों तक पर मित्रों का प्रभाव साफ देखा जा सकता है।

कई बार ऐसा भी होता है कि माता-पिता और मित्रों के मूल्य, पसंद-नापसंद तथा सोच इत्यादि एक-दूसरे से काफी अलग हों। ऐसे स्थिति में किशोर अक्सर अपने मित्रों की ओर ही अधिक झुकाव रखता है। इससे माता-पिता और किशोर के संबंधों में परिवर्तन आने लगता है।

मित्रों का प्रभाव किशोरों की पहचान को सकारात्मक तथा नकारात्मक, दोनों ही रूपों में प्रभावित कर सकता है। नकारात्मक प्रभाव तब दिखाई पड़ते हैं जब किशोर हानिकारक आचरण जैसे धूम्रपान करना, ड्रग या एल्कोहल लेना अथवा दूसरों को धमकाना इत्यादि में लिप्त हो जाता है।

लेकिन, यदि किशोर के मित्र ऐसे हो जिनकी सोच, पसंद-नापसंद तथा नैतिक मूल्य किशोर के माता-पिता की अपेक्षाओं के अनुरूप हो तो, ऐसी स्थिति में किशोरों के लिए मित्रों तथा अपने माता-पिता के साथ संबंधों में संतुलन बनाने में आसानी होती है। इससे किशोर के दोनों पक्षों के साथ मधुर और मजबूत संबंध बनते है। अक्सर मित्र और माता-पिता एक-दूसरे के पूरक कार्य करते हैं और किशोरों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

3. भावात्मक परिवर्तन (Emotional Changes)

किशोरावस्था के दौरान किशोर कई भावात्मक परिवर्तनों का अनुभव करते है। इनमें से कई भावनात्मक परिवर्तन किशोरों में हो रहे जैविक और शारीरिक परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होते हैं। तीव्र गति से हो रहे शारीरिक परिवर्तनों के प्रति अभस्त न होने के कारण अधिकतर किशोर अपने शारीरिक स्वरूप को लेकर चिर्तित रहने लगते हैं।

उन्हें लगता है कि दूसरे लोग उनके शरीर और व्यवहार के प्रत्येक पहलू को देख रहे हैं, जैसे कि– यदि किसी किशोर या किशोरी के चेहरे पर मुंहासे निकल आए तो उन्हें यहीं लगता कि उनके आस-पास से गुजरने वाला तथा उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति सबसे पहले उनके चेहरे के मुंहासों की ओर ही देखता है।

शारीरिक परिवर्तनों के प्रति सभी-किशोर अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। जैसे कि– एक लड़का जिसके चेहरे पर उसकी उम्र के अन्य लड़कों की तुलना में पर्याप्त बाल नहीं हैं, उसे यह बड़ा अटपटा सा लग सकता है, जबकि कई किशोर ऐसे भी होते है जिन्हें ऐसी परिस्थिति में कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। अपने शारीरिक विकास के प्रति गर्व अथवा सहज भाव रखने से किशोरों के स्व-बोध पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

यदि कोई किशोर अपने शारीरिक स्वरूप को लेकर आवश्यकता से अधिक परेशान तथा असंतुष्ट रहता है तो वह अक्सर अपने व्यक्तित्व के अन्य जरूरी पहलुओं, जैसे कि- कार्य, पढ़ाई आदि पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है। इससे विद्यालय तथा अन्य क्षेत्रों में उसके प्रदर्शन में कमी आ सकती है और यह साथ-ही-साथ उसकी स्वयं के प्रति धारणा अथवा स्वाभिमान को भी कम करती है।

अपने प्रति नकारात्मक धारणा रखने से अक्सर व्यक्ति असुरक्षित महसूस करता है जिससे उसमें शरीर के प्रति नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। कई बार ऐसा होता है कि शारीरिक रूप से अपंगता वाला किशोर स्वयं को अन्य से कम न समझे जबकि एक ठीक-ठाक शरीर वाला किशोर हर समय चिंतित और अपूर्ण महसूस करता है क्योंकि उसे लगता है कि उसका शरीर उसकी इच्छाओं के अनुरूप आकर्षक नहीं है।

किशोरों की मनःस्थिति भी परिस्थितियों के अनुरूप बदलती (mood swings) रहती है। जैसे कि- कभी तो किशोर परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ रहने की इच्छा रखता है और कभी बिल्कुल अकेले रहना पसंद करता। किशोरों को कई बार अचानक बेहद तेज़ क्रोध भी आ सकता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किशोर विभिन्न स्तरों पर स्वयं में हो रहे विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों को जानने का और समझने का प्रयास कर रहे होते है।

4. संज्ञानात्मक परिवर्तन (Cognitive Changes)

मनुष्य की सोचने-समझने की क्षमता ही उसे दूसरे जीवों से श्रेष्ठ बनाती है। मनुष्य में यह असाधारण शक्ति जन्मजात ही होती है, हालांकि जन्म के समय यह बहुत ही कम विकसित होती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ बुद्धि का विकास होता है।

जिससे मनुष्य की स्मृति (memory), कल्पना (imagination), चिंतन (thinking) तथा तर्क (reasoning) करने जैसी मानसिक प्रक्रियाओं का विकास होने लगता है। जीवन की लगभग सभी समस्याओं का हल इन्हीं प्रक्रियाओं द्वारा किया जा सकता है।

मानसिक प्रक्रियाएँ जो चिंतन, कल्पना, तर्क तथा स्मृति से परिपूर्ण होती है ‘संज्ञान’ कहलाती है। संज्ञान द्वारा ही बालक अपने आसपास के वातावरण को समझने लगता है। वह धीरे-धीरे नये रूप, रंग तथा आकार की वस्तुओं को पहचानने में सक्षम हो जाता है, दूसरे शब्दों में कहें तो उसके मस्तिष्क में उस वस्तु की छाप पड़ जाती है, जिसे प्रत्यय बनना भी कहते हैं। संज्ञान का विकास प्रत्ययों के विकास पर ही निर्भर करता है।

किशोरावस्था ज्ञान व मानसिक विकास में विशिष्ट उत्कृष्टता अर्जित करने की अवस्था है। किशोर प्रत्यक्ष को यथार्थ मानने के साथ-साथ विभिन्न संभावनाओं का भी अनुमान लगा सकते हैं। वे अमूर्त चिन्तन (hypothetical thinking) तथा परिकल्पनाएँ (hypothesis) करने के योग्य हो जाते हैं।

वे किसी भी समस्या कई संभावित हलों की परिकल्पना करने व अनुमान द्वारा उसका निष्कर्ष निकालने लगते हैं। इस परिस्थिति में वे नियोजित तरीके से व्यवहार करते हैं। इस अवस्था के किशोर ऐसी परिस्थिति की कल्पना कर सकते हैं जो उन्होंने स्वयं कभी अनुभव न की हो। वे प्राकृतिक आपदा या भयानक दुर्घटना के असर को समझकर उसके संभावित कारणों व प्रभावों का विश्लेषण कर सकते हैं।

किशोर के साकार-प्रक्रिया अवस्था से औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था में पहुँचने के कारण वह अमूर्त व सृजनात्मक चिन्तन करने में सक्षम हो जाता है। उसकी कार्यशैली अधिक नियोजित हो जाती है तथा वह तर्क-वितर्क व परिकल्पना का प्रयोग अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में करने लगता है।

किशोरावस्था के दौरान होने वाले ज्ञानात्मक परिवर्तन

(a) सुव्यवस्थित सोच-विचार (Systematic Thinking) :

किशोर किसी भी समस्या को हल करने के लिए क्रमबद्ध सोच-विचार करते हैं। वह समस्या से संबंधित सभी कारणों को सुनियोजित तरीके से जोड़कर, सभी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उसका निष्कर्ष निकालने का प्रयास करते हैं। जैसे कि- यदि किशोर को पूछा जाए कि आज स्कूल में उसने क्या पढ़ा तो वह क्रमानुसार सुनियोजित ढंग व विस्तृत रूप से प्रत्येक विषय के बारे में जानकारी देगा। जबकि यही प्रश्न यदि एक अल्पवयस्क से पूछा जाए तो वह अव्यवस्थित ढंग से अधूरी जानकारी ही देगा।

(b) परिकल्पनाएँ (Hypothesis) :

किशोर यथार्थ को समझने के साथ-साथ ऐसी सोच भी विकसित कर लेते हैं जो केवल उनकी परिकल्पना
मात्र ही होती है। वह ऐसी स्थितियों के विषय में चिंतन करने लगते हैं, जिनका अनुभव उन्होंने स्वयं कभी न किया हो। इस अवस्था में वह स्थिति का अनुमान लगाकर उसका निष्कर्ष निकालने में भी सक्षम हो जाते हैं। किशोर एक ही स्थिति के कई हल व उनके परिणामों को भी सोच सकते हैं। जैसे कि- कहीं बाढ़ आने पर किशोर बाढ़ के दुष्परिणामों के साथ-साथ बाढ़ के कारणों का भी विश्लेषण कर सकते हैं।

(c) काल्पनिक स्थिति में तर्क-वितर्क (Reasoning in Imaginary Situations) :

किशोर काल्पनिक स्थितियों का विचार करके, उनके विषय में अपने तर्क प्रस्तुत करने में सक्षम हो जाता है। वह अवास्तविक समस्याओं के विषय में सोचकर उनका तर्कपूर्ण उत्तर देने में भी सक्षमहो जाता है। जबकि अल्पायु बालक कल्पनाशक्ति के अभाव के कारण ऐसी स्थितियों के बारे में नहीं सोच सकता। उदाहरणतः किशोर एक बम विस्फोट दुर्घटना संबंधित स्थिति व सभी तथ्यों पर विचार प्रकट कर सकता है। वह वास्तविक रूप से वहाँ उपस्थित न होते हुए भी वहाँ की सारी जानकारी निपुणता से दे सकता है।

(d) काल्पनिक निगमनिक तर्क (Hypothetical deductive Reasoning) :

किशोर किसी भी समस्या के विभिन्न संभावित हल निकालने की क्षमता रखता है। उसके विचार वास्तविकता से हटकर संभव तथ्यों के बारे में सोचते हैं। वह तर्कपूर्ण ढंग से हर संभव विकल्प का विचार कर निर्णय लेता है। निर्णय लेने से पहले वह सभी अनुमान सोच लेता है।

जैसे कि- यदि खिड़की का काँच टूटा हुआ पाया गया हो तो साकार-प्रक्रिया वाले बालक इसका कारण केवल पत्थर मारकर काँच तोड़ा गया होगा सोच सकते हैं। जबकि औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था में किशोर इसके विभिन्न कारण जैसे- तेज हवा/आँधी का आना, बिजली गिरना, तीव्र ध्वनि होना अथवा पत्थर मारकर काँच तोड़ना जैसे संभावित कारण सोच सकते हैं।

(e) आत्म-मूल्यांकन (Self-realization) :

औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था में किशोर स्वयं में रुचि लेने लगते हैं। वे आत्म-मूल्यांकन करके अपने गुण-दोष, कमियाँ व शक्तियाँ जाँचने लगते हैं। इस अवस्था में किशोर आत्म-निरीक्षण के साथ-साथ प्रत्येक वस्तु, स्थिति व व्यक्ति का भी सम्पूर्ण विश्लेषण करने लगते हैं।

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