मौलिक कर्तव्य Fundamental Duty B.A Hons. Pol Science, B.A (Programme)

उद्देश्य

· धार्मिकता और कर्त्तव्य चेतना की प्राचीन भारतीय अवधारणाओं का अध्ययन करना
· भारतीय परम्परा में कर्त्तव्य – चेतना का अध्ययन करना
· संविधान में वर्णित मौलिक कर्त्तव्यों का अध्ययन- अनुच्छेद 51 (क)
· मौलिक कर्त्तव्यों की वैधानिक स्थिति का न्यायिक दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करना।
परिचय

अधिकार सामाजिक जीवन की ऐसी अनिवार्य आवश्कताएँ हैं जिसके आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो सकता है और वह समाज के लिए सकारात्मक सहयोग दे सकता है। मानव जीवन की कल्पना बिना अधिकारों के संभव नहीं हो सकती है। इस कारण आधुनिक राष्ट्र- राज्य की संकल्पना का विकास अधिकारों की मांग के परिप्रेक्ष्य में हुआ। लास्की ने कहा है कि “राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार का अधिकार प्रदान करता है उसी के आधार पर राज्य को अच्छा अथवा बुरा कहा जा सकता है।”

अधिकार को परिभाषित करते हुए लास्की लिखते हैं कि “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ है जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” अधिकार व कर्त्तव्य के संबंधो के विषय में अलग-अलग अवधारणाएँ है, कुछ विद्वान अधिकार को अधिक महत्त्व देते हैं और कुछ विद्वान कर्त्तव्यों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। गाँधी का मानना था कि व्यक्ति को अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए अधिकार स्वतः उसे मिल जायेंगे। सर्वमान्य अवधारणा यह है कि अधिकार और कर्त्तव्य मानव जीवन में एक-दूसरे के पूरक हैं।
धार्मिकता की प्राचीन भारतीय अवधारणा

प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ ऋग्वेद में लिखा गया है कि सभी मानव समान है और वे सभी एक दुसरे के अधिकारों का सम्मान करते हैं। अथर्ववेद में इस मत का समर्थन किया गया है। प्राचीन भारत का प्रमुख सिद्धांत यह था कि एक व्यक्ति का अधिकार दुसरे व्यक्ति का दायित्व है। वैदिक ग्रंथों के अतिरिक्त बौद्ध दर्शन में भी भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का उद्देश्य और उसका उपयोग व्यक्तियों को समानता प्रदान करने के लिए किया गया था। बौद्धों के अनुसार, राज्य का प्रमुख कर्त्तव्य सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना है। अशोक ने मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए व्यापक रूप से काम किया इसका उल्लेख शिलालेख में मिलता है। उनकी मुख्य चिंता अपनी प्रजा का सुख था। अशोक एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सफल रहा और व्यक्तियों के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध कराये अर्थात् अशोक के शासन काल में प्रजा के अधिकार सर्वोपरि था।

ब्राह्मणों द्वारा धारण की गई धर्म की अवधारणा धार्मिकता के आधार से भिन्न है। यह सदाचार व नैतिकता के पश्चिमी विचारों के अनुरूप है। ब्राह्मणवादी साहित्य के अनुसार, राजा नैतिक मानकों के एक अलग विधान के अधीन था। जब राजा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा कर रहा होता था, तो सामान्य लोगों के लिए जो अधर्म था, वह उसके लिए धर्म भी हो सकता है क्योंकि उसका उद्देश्य व्यापक और निर्णय राज्य के सम्पूर्ण हित में होता था। इसे राजधर्म के नाम से जाना जाता है। भगवद्गीता और महाभारत दोनों सामान्य अवधारणा में प्रचलित धर्म के विपरीत राजधर्म के विचार की गहन व्याख्या प्रदान करते हैं।
कर्त्तव्य चेतना पर भारतीय विचार

प्राचीन भारत में अधिकार व कर्त्तव्य चेतना का आधार वर्ण व्यस्था थी जिसका निर्धारण 4 पुरषार्थ से होता था। धर्म शास्त्रों में चार वर्णों में से प्रत्येक के लिए उनके नैतिक और धार्मिक कर्त्तव्यों, दंड और प्रायश्चित के संबंध में विशिष्ट दिशानिर्देश थे। चार वर्णों के प्रति उनके दृष्टिकोण और दृष्टिकोण के संबंध में, वे निश्चित रूप से भेदभावपूर्ण थे। महाभारत व भगवद गीता में वर्णन है कि लोग ब्रह्मा की संतान हैं इसलिए चार वर्ण है जो वंशानुगत नहीं बल्कि श्रेणियाँ हैं। प्रकृति (स्वयं की प्रकृति) से उत्पन्न गुणों के अनुसार चार वर्ण केवल कर्त्तव्यों का वितरण हैं। प्रत्येक वर्ण के कर्त्तव्य का वर्णन किया गया है।
ब्राह्मण : ब्राह्मण वर्ग श्रेष्ठ वर्ग था और कहा जाता है कि यह सत्य और शुद्ध आचरण के लिए समर्पित व्यक्ति की स्थिति थी। पुजारी, गुरु, ऋषि, शिक्षक और विद्वान मिलकर एक ब्राह्मण समुदाय बनाते थे। साथ ही, ब्राह्मणों ने पृथ्वी पर देवताओं के रूप में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। कुछ वैदिकों को छोड़कर, जहाँ उन्हें राजा के नीचे बैठना पड़ता था, जिसके कारण समाज में उनकी स्थिति अपराजेय थी। ब्राह्मणों ने ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य) रहने की प्रतिज्ञा की, केवल प्रजनन के लिए विवाह किया। ब्राह्मण शिक्षा और आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करते थे और इसलिए नवजात विशेष रूप से क्षत्रियों के लिए शिक्षक के रूप में पहली पसंद थे। ब्राह्मणों ने सभी आदर्श गुणों को विकसित किया, विशेष रूप से ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, स्वच्छता, पवित्रता, तपस्या, ज्ञान और ज्ञान सभी साधकों को सर्वोच्च ज्ञान की ओर ले गए। मन और इंद्रियों का नियंत्रण, वेदों का ज्ञान ब्रह्म से आवश्यक था। यद्दपि, किसी की बुद्धि के ज्ञान और भूमि को प्राप्त करने से कोई भी व्यक्ति अन्य वर्णों से ब्राह्मण बन सकता था।

क्षत्रिय : ब्राह्मणों के बाद क्षत्रिय थे। वे योद्धा वंश के रूप में सबसे शक्तिशाली थे, राजा, शासक और प्रशासक क्षत्रिय का गठन करते थे। उनके पास पृथ्वी पर उसके प्रतिनिधियों के रूप में शासन करने और कानूनों को लागू करने के लिए भगवान के अधिकार का दावा करने का अधिकार था। आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्षत्रियों को बहुत कम उम्र से ही ब्राह्मण के आश्रम में भेज दिया गया था। पराक्रम, निर्भीकता, धैर्य, निपुणता, उदारता और संप्रभुता क्षत्रियों के कर्त्तव्य हैं। राज्य, नागरिकों और क्षेत्र की रक्षा करना, हमलों के खिलाफ लड़ना, समाज में शांति और खुशी का विस्तार करने के लिए न्याय प्रदान करना उनका मौलिक कर्त्तव्य था। उन्हें अपने स्वयं के मन और इंद्रियों को जीतना था और केवल शास्त्रों के आदेश के अनुसार आनंद लेना था। लोकप्रिय धारणा के विपरीत, क्षत्रिय महिलाएँ क्षत्रिय पुरुषों के समान ही सक्षम थीं और अपने राज्य में कमियों की जिम्मेदारी लेंगी और संकट के समय राज्य की रक्षा करेंगी।

वैश्य : क्षत्रियों के बाद वैश्य थे। वे सबसे अधिक उत्पादक वर्ग हैं। वैश्यों में कृषक, व्यापारी, किसान,व्यापारी और व्यवसायी शामिल थे। उन्हें क्षत्रियों (शासक वर्ग) को कर देना था। पशुपालन वैश्यों के सबसे सम्मानित व्यवसायों में से एक है, जानवरों और भूमि की रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था। उन्होंने पर्याप्त मात्रा में भोजन, कपड़े के साथ श्रमिकों को बनाए रखने के लिए धन और समृद्धि उत्पन्न की। जैसा कि राज्य के जानवरों (गाय, हाथी, घोड़े) की गुणवत्ता ने नागरिकों की संबंधित समृद्धि को प्रभावित किया, वैश्य लाभ और आर्थिक संभावनाएँ प्रदान करके जीवन स्तर के निरंतर उन्नयन में योगदान देंगे।

शूद्र : वैश्यों के बाद अंतिम वर्ण शूद्र थे। जबकि अन्य वर्ण व्यावसायिक और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे, केवल उन्हें ही दूसरे के रोजगार को स्वीकार करने की अनुमति थी। कारीगरों और श्रमिकों में शूद्र शामिल थे। शूद्र ब्राह्मणों की उनके आश्रमों में, क्षत्रियों की उनके महलों और राजसी शिविरों में और वैश्यों की व्यावसायिक गतिविधियों में सेवा करते थे। उनका कर्त्तव्य सेवाओं को प्रदान करना था जिसके कारण वे एक समृद्ध अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गए। प्रत्येक शूद्र का अपने जीवन कर्त्तव्यों के प्रति अपना आचरण था। वे वफादार थे और उनकी निस्वार्थता उन्हें सम्मान के योग्य बनाती थी।
व्यक्ति वर्ण व्यस्था के अनुरूप और चार पुरषार्थ के आधार पर अपने कर्त्तव्यों का पालन करता था जिसका अंतिम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति होती थी।

· संविधान तथा कानूनों का आदर करना – नागरिकों का यह प्रथम कर्त्तव्य है कि देश के संविधान और संसदीय विधि का आदर व सम्मान के साथ उसका अनुपालन करे।
· राष्ट्र की सम्प्रभुता को कायम रखना- नागरिको की यह मूलभूत जिम्मेदारी है कि राष्ट्रीयता की भावना के साथ राष्ट्र की संप्रभुता को अक्षुण्य बनाये रखने में योगदान दे।
. नागरिको का यह परम कर्त्तव्य है कि वे देश की एकता के लिए सदैव सक्रिय रहे और अपना सकारात्मक सहयोग दे।
. लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि नागरिक का लोकतंत्र के प्रति क्या दृष्टिकोण है और उनके मन में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान की भावना स्वभावतः होनी चाहिए।
. नागरिको को देश की रक्षा करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
· यदि देश के समक्ष कोई चुनौती है अर्थात्त् आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए
· देश के प्रति कर्त्तव्य के साथ-साथ समाज के प्रति भी नागरिको के कर्त्तव्य होने चाहिए जैसे उन्हें साम्प्रदायिकता के सभी रूपों से दूर रहना चाहिए।
· राज्य के साथ नागरिको का कर्त्तव्य है कि उन्हें सामाजिक व आर्थिक न्याय के हित में, जनता के समान कल्याण को प्रोत्साहन देना चाहिए।
· राज्य व समाज में शांति व सौहार्द के लिए नागरिको को हिंसा से दूर रहना चाहिए। राज्य की संपत्ति का अर्थ है प्रत्येक नागरिक की सम्पत्ती इसलिए उनका परम कर्त्तव्य है कि सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करे।
· राज्य के विकास में योगदान के लिए आवश्यक है कि सभी नागरिक को कानून के आधार पर करों का भुगतान करना चाहिए।
उपरोक्त प्रमुख कर्त्तव्यों की सिफारश स्वर्ण सिंह समिति द्वारा किया गया था। जिसे भारत सरकार ने 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में शामिल किया।
मौलिक कर्त्तव्य – अनुच्छेद 51क ।(ए)- (के)।

स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर, 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक अतिरिक्त भाग 4 (ए) और अनुच्छेद 51 (ए.के) जोड़ा गया। इसमें दस मूल कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया था। 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा इस धारा में एक और मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया। परिणामस्वरुप, इसकी कुल संख्या अब बढ़कर 11 हो गई है। ये मूल कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

1. संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज व राष्ट्रगान का आदर करें।
2. “स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखें व उनका पालन करें।
3. भारत की प्रभुता, एकता व अखण्डता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्य रखें।
4. देश की रक्षा करें और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करें।
5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना की निर्माण करें, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभावों से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।
6. हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझें और उसका परिरक्षण करें।
7. प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य-जीव हैं, रक्षा करें और उसका सम्वर्द्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखें।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।
9. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।
10. व्यक्तिगत और सामूहिक सभी गतिविधियों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करें, जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धियों की नई ऊँचाइयों को छू लें।
11. “संविधान के अनुच्छेद 51 ए में संशोधन करके (J) के बाद नया अनुच्छेद (K) जोड़ा गया है, “इसमें 6 साल से 14 साल तक की आयु के बच्चे के माता-पिता या अभिभावाक अथवा संरक्षक को अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराने का प्रावधान है”।
मौलिक कर्त्तव्यों की वैधानिक स्थिति और न्यायिक दृष्टिकोण

मौलिक कर्त्तव्यों के विषय में समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपना मत रखा गया जैसे कि अनुच्छेद 51 (क) के विषय में न्यायालय ने कहा कि मौलिक कर्त्तव्य में वर्णित कुछ शब्द संविधान के विभिन्न भागों में पहले से उल्लेखित है जिनका दुबारा वर्णन करना आवश्यक नहीं है। जैसे कि अनुच्छेद 351 में वर्णित है कि संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाये एवं उसका विकास करे, जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। इस संदर्भ को पुनः मौलिक कर्त्तव्य के रूप में वर्णन करना आवश्यक नहीं।

अंग्रेजों और मुगलों ने इस देश पर शासन किया। भारत की शानदार सहिष्णुता के कारण, हिंदू संस्कृति ने विभिन्न विदेशी संस्कृतियों को अवशोषित किया और एक “समग्र संस्कृति” के साथ बड़ा हुआ। हिंदू धर्म ने सहिष्णुता के साथ धार्मिक आत्मसात की सांस्कृतिक समृद्धि को समायोजित करने और आत्मसात करने के लिए लचीलापन विकसित किया, और यह धार्मिक सहिष्णुता की भूमि बन गया। प्रत्येक धर्म ने एक सकारात्मक संक्लेषण या मिश्रण किया जिसने समग्र भारतीय सभ्यता को समृद्ध किया। नतीजतन, हमारे संवैधानिक पंथ ने सभी धर्मों के प्रति हमारी सहिष्णुता का प्रतिनिधित्व किया।
निष्कर्ष

इस प्रकार किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों का उल्लेख न केवल संविधान में किया जाना चाहिए। बल्कि नागरिकों में कर्त्तव्य की भावना पैदा करना भी आवश्यक है। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक भारतीय समाज में कर्त्तव्य चेतना का प्रबल भाव रहा है। यद्दपि कर्त्तव्य के पूर्ण निष्पादन में कुछ गिरावट देखने को मिलती है, मूल संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया था, लेकिन मौलिक कर्त्तव्यों के संनंध में संविधान सभा में आम सहमति की कमी के कारण उस समय यह उल्लेख नहीं किया जा सका। 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से इसे संविधान के भाग 4 (क) और अनुच्छेद 51 (क) में शामिल किया गया। यह एक बड़ा ऐतिहासिक कदम साबित हुआ सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर कर्त्तव्यों के विषय में विस्तार से बताया गया है।

इसके साथ संयजन के रूप में कुछ कर्त्तव्यों को समझाया गया है। आज कर्त्तव्य के साथ-साथ अधिकार को नैतिक मूल्य मानकर उसका पालन करना भी आवश्यक है। और यह तभी संभव हो सकता है जन नागरिकों में कर्त्तव्य की भावना हो। क्योंकि देश के सर्वोच्च कानून में इनका उल्लेख है, जिससे इनका विशेष महत्त्व और भी हो जाता है, जिसके कारण ये न केवल नागरिकों का बल्कि सरकार का भी कर्त्तव्य बन जाता है। अंततः, यह कहा जा सकता है कि वे आदर्शों या शुभकामनाओं के रूप संविधान में शामिल किया गया हैं। इनसे लाभ हो सकता है एकता व अखंडता में सहायक सिद्ध होंगे लेकिन हानि की कोई संभावना नहीं है। इसका पालन नागरिको का संवैधानिक व नैतिक कर्त्तव्य है।