नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order, N.I.E.O.) की धारणा का जन्म 1970 के दशक में हुआ, जब विकासशील देशों (विशेष रूप से अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के अल्प विकसित देशों) ने वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में सुधार की मांग उठाई। इन देशों का तर्क था कि मौजूदा आर्थिक ढांचा औपनिवेशिक दौर से प्रभावित है, जिसमें विकसित देशों का प्रभुत्व है और जो उनके आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचा रहा है।
नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का जन्म:
- 1970 का दशक: तेल उत्पादक देशों द्वारा पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (OPEC) के माध्यम से तेल की कीमतों में वृद्धि के बाद विकासशील देशों ने महसूस किया कि सामूहिक प्रयासों के माध्यम से वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में बदलाव लाया जा सकता है।
- 1974 में संयुक्त राष्ट्र महासभा: महासभा ने “नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था” (NIEO) की स्थापना के लिए एक घोषणा पारित की। इसका उद्देश्य आर्थिक समानता, संसाधनों पर संप्रभुता, और वैश्विक व्यापार एवं वित्तीय नियमों में सुधार था।
1972 में अंकटाड (UNCTAD) द्वारा प्रस्तावित चार प्रमुख सुधार:
अल्प विकसित देशों (LDCs) को लाभ पहुंचाने के लिए अंकटाड ने निम्नलिखित चार सुधार प्रस्तावित किए:
- विकासशील देशों के लिए विशेष तरजीही व्यापार व्यवस्था:
- अल्प विकसित देशों से आयातित वस्तुओं पर विकसित देशों द्वारा कम या शून्य शुल्क लगाया जाए ताकि इन देशों के निर्यात को प्रोत्साहन मिले।
- स्थिर और निष्पक्ष कीमतें सुनिश्चित करना:
- प्राथमिक वस्तुओं (जैसे कच्चे माल और कृषि उत्पाद) की कीमतों में स्थिरता लाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मूल्य-समझौतों को लागू करना। यह इन वस्तुओं के निर्यात पर निर्भर देशों की आय में स्थिरता लाने के लिए था।
- विकासशील देशों को तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करना:
- उन्नत प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को सुगम बनाना और विकासशील देशों को अनुदान एवं रियायती ऋण प्रदान करना।
- व्यापार घाटे को कम करने के लिए सहायक उपाय:
- विकासशील देशों के व्यापार घाटे को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा सहायता प्रदान करना और इन देशों के ऋण प्रबंधन में सुधार।
ये प्रस्ताव आर्थिक असमानता को कम करने और विकासशील देशों को सशक्त बनाने के लिए थे, ताकि वे वैश्विक अर्थव्यवस्था में समान रूप से भाग ले सकें।