संवैधानिक मूल्य Constitutional Values B.A Hons. Pol Science, B.A (Programme)

न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की अवधारणा – भारतीय संविधान का एक सामाजिक और परिवर्तनकारी दस्तावेज़ के रूप में ग्रैनविले ऑस्टिन विश्लेषण करते हैं (Austin 1966)। यह दर्शन भारतीय संविधान के भाग III द्वारा सर्वोत्तम रूप से अभिव्यक्त हुआ है। ये अधिकार मौजूदा सरकार द्वारा किसी भी प्रकार के अतिक्रमण के विरुद्ध गारंटी हैं। इसलिए ये वे अधिकार हैं जो सरकार, विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों पर सीमाओं के रूप में कार्य करते हैं।

भाग III के तहत अधिकारों को दो महत्त्वपूर्ण कारणों से मौलिक माना जाता है।

1) इन अधिकारों का उल्लेख संविधान में व्यक्ति और समूहों की गारंटी के रूप में किया गया है।
2) ये अधिकार न्यायसंगत हैं अर्थात् इन्हें कोर्ट्स ऑफ लॉ के माध्यम से लागू किया जा सकता है। इसका अर्थ यह भी है कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में, व्यक्ति अपनी शिकायत के निवारण के लिए सीधे उच्चतम न्यायालयों (भारत के सर्वोच्च न्यायालय या राज्य के उच्च न्यायालय) से संपर्क कर सकता है।

यदि सरकार (राज्य और केंद्र दोनों) एक कानून बनाती है जो मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करती है, तो ऐसे कानून की अदालत द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और इसे निरस्त भी किया जा सकता है।
प्रस्तावना: हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को-

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए,

तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और

राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढसंकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल-सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
मौलिक अधिकार

1. समानता का अधिकार, (अनुच्छेद 14-18)
2. स्वतंत्रता का अधिकार, (अनुच्छेद 19-22)
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार, (अनुच्छेद 23-24)
4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, (अनुच्छेद 25-28)
5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार। (अनुच्छेद 32)

मूल रूप से संविधान में सात मौलिक अधिकार थे जिनमें मौलिक अधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार भी शामिल था। चूँकि संपत्ति के अधिकार को भूमि सुधार और धन के समान वितरण के लक्ष्यों को प्राप्त करने में बाधा माना जाता था। इसलिए इसे 44 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा निरस्त कर दिया गया। अब, संपत्ति का अधिकार अनुच्छेद 300-(क) के तहत सिर्फ एक साधारण कानूनी अधिकार है।
मौलिक अधिकार और मानवाधिकार

मौलिक अधिकारों की तुलना मानव अधिकारों से की जाती है। मानवाधिकारों को गरिमामय जीवन जीने के लिए न्यूनतम आवश्यक शर्त माना जाता है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकार शामिल हैं। चूँकि मौलिक अधिकार सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं पर भी व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हैं, इसलिए इसे मौलिक मानवाधिकार भी माना जाता है। इन अधिकारों के संरक्षण के लिए व्यापक कार्रवाई केवल मौलिक अधिकारों तक ही सीमित रहती है, इसलिए सभी मानवाधिकार मौलिक अधिकार नहीं हैं। इसे भारतीय संविधान के मैग्ना कार्टा के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता की स्थापना करता है और यह व्यक्ति या राज्य द्वारा बलप्रयोग के विरुद्ध खड़े होने की बात करता है।
मौलिक अधिकारों की उत्पत्ति: भारत में मौलिक अधिकारों की प्रेरणा इंग्लैंड के बिल ऑफ राइट्स (1689), संयुक्त राज्य अमेरिका (1791) और मानवाधिकारों की फ्रांसीसी घोषणा (1789) से ली गई है।

एनी बेसेंट (1925) द्वारा तैयार किए गए भारत के राष्ट्रमंडल विधेयक ने सात मौलिक अधिकारों की मांग की, जिसमें स्वतंत्र अंतःकरण, स्वतंत्र अभिव्यक्ति, सभा की स्वतंत्रता, धर्म, जाति, लिंग या मूल स्थान आदि के आधार पर विभेद को निषेध करना शामिल किया गया था-

सन् 1928 में, नेहरू कमीशन में भारत में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल थे और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में भारत के लिए एक संवैधानिक सुधार का प्रस्ताव रखा। उन्होंने भारत के डोमिनियन दर्जे की मांग के साथ ही वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव की भी मांग की। उनकी मांगों में कुछ अधिकारों की गारंटी भी शामिल थी, जिन्हें मौलिक माना गया था एवं जो कि सरकार की शक्ति को भी सीमित करते थे।

सन् 1931 में कांग्रेस पार्टी ने प्रसिद्ध कराची अधिवेशन में नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। उन्होंने अस्पृश्यता और दासता को समाप्त करने के लिए भी इसे प्रतिबद्ध किया। इस संकल्प ने सामान्य व्यक्ति को सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की रक्षा हेतू न्यूनतम वेतन के लिए भी प्रतिबद्ध किया।

सन् 1944-45 में सप्रू समिति ने मौलिक अधिकारों की मांग का समर्थन किया। यह एक गैर-पक्षपातपूर्ण समिति थी जिसमें बुद्धिजीवी शामिल थे, जिसके अध्यक्ष तेज बहादुर सप्रू थे। जब भारत अपने संविधान के निर्माण की ओर बढ़ने लगा, तो संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकारों के विचार को महत्त्व दिया। उस समय में मौलिक अधिकारों की समिति के अध्यक्ष सरदार पटेल थे और अल्पसंख्यक अधिकारों की उप-समिति के अध्यक्ष आचार्य कृपलानी थे।
मौलिक अधिकारों की प्रकृति

मौलिक अधिकारों को किसी दूसरे देश में प्रचलित प्रथाओं द्वारा ही मात्र लागू करना नहीं है। बल्कि इसे भारत की सामाजिक-राजनीतिक, और सामाजिक-आर्धिक परिस्थितियों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के पश्चात् ही तैयार किया गया है।

1) पूर्ण अधिकार होने का मुद्दा : हमारे संविधान में गारंटीकृत मौलिक अधिकार पूर्ण नहीं हैं। इन मौलिक अधिकारों पर आवश्यक शर्तों तथा परिस्थितियों में उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

2) अधिकारों की न्यायसंगतता : अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक को अपने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार प्रदान करके ही इसे न्यायोचित बनाया जाता है।

3) नागरिकों को उपलब्ध अधिकार : यद्यपि ये अधिकार मानव अधिकारों की प्रकृति में शामिल हैं तथा साथ ही सार्वभौमिक रूप से लागू हैं लेकिन ऐसे कुछ सुरक्षा उपाय हैं जो केवल देश के नागरिकों को प्रदान किए गए हैं। यह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों के संबंध में से एक है। इसमें केवल नागरिकों को उपलब्ध अधिकार सम्मिलित हैं, जैसे कि सार्वजानिक रोज़गार के मामलों में अवसर की समानता, किसी भी आधार पर भेदभाव से सुरक्षा, भाषण, अभिव्यक्ति, संघ, आंदोलन निवास और व्यवसाय की स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार आदि।

4) अधिकारों की क्षमता में संशोधन करना : विधायिका और न्यायपालिका के मध्य कई संघर्षों के पश्चात, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन और कमी की जा सकती है, लेकिन इस प्रकार से नहीं कि इससे संविधान की मूल संरचना को परिवर्तित किया जा सके।

5) भारतीय संघ : इसने संविधान के पहले संशोधन की वैधता को चुनौती दी। इस मामले में यह कहा गया था कि संविधान संशोधन भी वैध माना जाएगा, भले ही वह कुछ मौलिक अधिकारों को सीमित या समाप्त कर देता हो। सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य में सर्वोच्च न्यायलय द्वारा इसी तरह का निर्णय दिया गया था, जिसने 17वें संशोधन (1965) SC 845) की वैधता को चुनौती दी धी। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य में, संविधान (17बां संशोधन) अधिनियम, 1964 की वैधता को फिर से चुनौती दी गई, जिसमें कुछ राज्यों को शामिल किया गया।

जिसने नौवी अनुसूची में कुछ राज्य अधिनियमों को सम्मिलित किया। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के मामले में दिए गए फैसले को पलट दिया था। यह माना गया कि इस निर्णय की तारीख से संविधान के अनुच्छेद III को इस तरह से परिवर्तित करने की कोई शक्ति संसद को प्राप्त नहीं थी जो कि मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित या समाप्त कर दे। इस फैसले में ग्यारह न्यायाधीशों ने भाग लिया।
गोलकनाथ के निर्णय से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए संसद ने 24वाँ संशोधन अधिनियमित किया। इस संशोधन में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए हैं

1) इसने अनुच्छेद 13 में एक नया खंड (4) को जोड़ा है जिसके अनुसार अमुच्छेद 368 के तहत किए गए इस संविधान के किसी भी संशोधन पर लागू नहीं होगा।

2) अनुच्छेद 368 के सीमांत शीर्षलेख (मार्जिनल हेडर) को ‘संविधान के संशोधन की प्रक्रिया’ से परिवर्तित करके ‘संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और प्रक्रिया’ में बदल दिया गया।

3) इसने अनुच्छेद 368 में एक नया उपखंड (I) जोड़ा, ‘इस संविधान में किसी भी बात के होते हुए भी, संसद, अपनी संविधान शक्ति के प्रयोग में, इस अनुच्छेद में स्थापित प्रक्रिया के अनुसार संविधान के किसी भी प्रावधान को जोड़ने, परिवर्तन करने या निरस्त (रिपील) करने के माध्यम से संशोधन कर सकती है,’ जिसे कि अनुच्छेद 368 में जोड़ा गया था। इस प्रकार से 24वें संशोधन ने संसद की संशोधन शक्ति को बहाल कर दिया।

24वें संशोधन की वैधता को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)के मामले में चुनौती दी गई थी। इसने केरल सुधार अधिनियम, 1963 की वैधता को चुनौती दी। लेकिन याचिका के लंबित रहने के दौरान केरल अधिनियम को 29वें संशोधन द्वारा नौवीं अनुसूची में रखा गया था। इस मामले में संशोधन के बारे में शामिल मामले में संविधान के अनुच्छेद 368 द्वारा प्रदत्त संशोधन शक्ति की सीमा के बारे में प्रश्न उठा। इस मामले की सुनवाई के लिए 13 न्यायधीशों की स्पेशल बेंच को गठित किया गया था। इसमें न्यायालय ने बहुमत से गोलकनाथ के मामले को खारिज कर दिया, जिसने संसद को नागरिकों के मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति से वंचित कर दिया। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, किंतु उसके मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती है।

केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पश्चात् ही, इंदिरा गाँधी सरकार ने संविधान के (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 पारित किया, जिसमें दो नए खंड जोड़े गए, खंड (4) में यह व्यवस्था की गई कि कोई संवैधानिक संशोधन (भाग-III का प्रावधान सहित) या संविधान (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारंभ होने से पूर्व या पश्चात् में अनुच्छेद 368 के तहत किए जाने का तात्पर्य यह है कि, किसी भी आधार पर किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके खंड (5) ने संशोधन की शक्ति के दायरे के बारे में किसी भी प्रकार के संदेह को दूर कर दिया। इसने यह घोषणा की कि इस अनुच्छेद के तहत संविधान के प्रावधानों को जोड़ने, परिवर्तित करने या निरस्त करने के माध्यम से संसद की संवैधानिक शक्ति पर कोई परिसीमा नहीं होगी।

चूँकि इन खंडों ने संशोधन शक्ति पर सभी सीमाओं को हटा दिया और इस प्रकार से एक असीमित संशोधन शक्ति को प्रदान किया गया, जो कि संविधान की मूल संरचना के लिए विनाशकारी थी। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। संविधान के कारण ही संसद का अस्तित्व है और यह संसद संविधान पर प्राथमिकता नहीं ले सकती है। इसलिए इस ऐतिहासिक निर्णय ने न्यायालयों और कार्यपालिका के बीच लंबे विवाद को समाप्त कर दिया। इसलिए, इसकी वर्तमान में स्थिति इस प्रकार है-

1) अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार, संविधान संशोधन अधिनियम पारित करके मौलिक अधिकारों को निरस्त या कम किया जा सकता है।

2) हालाँकि मौलिक अधिकार संशोधन से मुक्त नहीं हैं, सर्वोच्च न्यायालय उस विशेष अधिकार को धारण करता है या फिर उसके भाग को जिसे संशोधन द्वारा हटा दिया गया है तो किसी भी विशेष अधिकार का संशोधन रद्द किया जा सकता है, जो कि संविधान की एक ‘मूल ढाँचे’ का गठन करता है।

3) जब तक संविधान में संशोधन करके किसी विशेष मौलिक अधिकार को इस प्रकार नहीं लिया जाता, तब तक वह संसद के साथ-साथ राज्य विधानमंडलों की विधायी शक्ति और ऐसे मौलिक अधिकारों के उल्लंघन में विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी भी कानून पर एक सीमा का गठन करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुछ को शून्य घोषित किया जा सकता है, जब तक कि स्वयं संविधान द्वारा संरक्षित न किया गया हो

इसलिए मूल संरचना सिद्धांत बहुत प्रभावी ढंग से संसद की संशोधन शक्ति पर एक सीमा साबित हुआ। यह मूल संरचना सिद्धांत केवल संशोधनों की संवैधानिकता पर लागू होता है न कि संसद के सामान्य अधिनियमों पर, जो कि संविधान की संपूर्णता के अनुरूप होना चाहिए न कि केवल इसकी मूल संरचना के अनुरूप होना चाहिए।
न्याय : सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक

संविधान की प्रस्तावना में “न्याय” शब्द का प्रयोग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की गारंटी के लिए तीन बार किया गया है। संविधान में इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर अध्याय शामिल हैं। सामाजिक न्याय का लक्ष्य जाति, वर्ग, पंथ, रंग, लिंग, धर्म और अन्य कारकों के आधार पर सामाजिक बाधाओं को दूर करना है।

यह पूर्वोक्त आधारों पर भेदभाव को गैरकानूनी धोषित करके समानता को उत्पन्न करना चाहता है। अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम (1955) को संशोधित करके और इसे नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 का नाम दिया गया, इसने अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बाधाओं को अवैध घोषित किया। इसी प्रकार, संविधान वंचित वर्गों के लिए आरक्षण को बहुमत के साथ समान करने के लिए रखता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995, दलितों के विरुद्ध अत्याचार को रोकने के लिए सरकार द्वारा पारित किए गए थे।

इस अधिनियम के नियमों को 31 मार्च 1995 को सार्वजनिक कर दिया गया। संविधान महिलाओं के लिए कुछ पदों और अन्य स्थितियों में आरक्षण की भी अनुमति देता है। परिणामस्वरूप, संविधान “संरक्षणात्मक भेदभाव” के माध्यम से समाज में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य वंचित समूहों की रक्षा करता है। सामान्य तौर पर, संविधान के रचयिता भारत को एक कल्याणकारी राज्य बनाना चाहते थे। दलितों के भयावह उत्पीड़न और जाति एवं धर्म जैसे सामाजिक मुद्दों के राजनीतिकरण ने सामाजिक न्याय के इन उच्च सिद्धांतों को जीवन में लाने के लिए विभिन्न सरकारों के प्रयासों के बावजूद, भारत में सामाजिक न्याय की वास्तविकता के बारे में चिंता की स्थिति उत्पन्न की है।
स्वतंत्रता : विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना

संविधान का अनुच्छेद 19(1) नागरिकों को वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, यह शांतिपूर्ण ढंग से इकठ्ठा होने के लिए, संघों या संगठनों के लिए, भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने के लिए, किसी भी व्यापार या कारोबार करने के लिए अधिकार प्रदान करता है। यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि ये अधिकार असीमित नहीं हैं और उचित प्रतिबंधों द्वारा सीमित किए गए हैं।

इन प्रतिबंधों को अनुच्छेद 19 के खंड 2-6 में परिभाषित किया गया है। ये प्रतिबंध स्वतंत्रता और सामाजिक अनुबंध के मध्य संतुलन बहाल करने के लिए लगाए गए हैं। जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लोक व्यवस्था, सदाचार अथवा नैतिकता, न्यायपालिका की अवमानना, मानहानि, सार्वजनिक व्यवस्था, विदेशी राज्यों के साध मैत्रीपूर्ण संबंध, तथा भारत की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता के आधार पर प्रतिबंधित आरोपित हैं। हालाँकि राज्य द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की तर्कसंगतता न्यायपालिका द्वारा तय की जा सकती है।

अनुच्छेद 20 के अनुसार आपराधिक कानून को पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि अपराधी को अपराध करने के समय जो कानून है उसी के तहत सज़ा मिलेगी, न कि पहले और बाद के बनने वाले कानून के तहत उसी अनुच्छेद में खंड बी कहता है कि किसी व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए दबाब में नहीं डाला जा सकता है।

अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार : यह सबसे समग्र रूप से व्याख्या किया गया अनुच्छेद है जिसने देश में आम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए नए आयाम जोड़े हैं। यह अनुच्छेद भी अनुच्छेद 32 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट द्वारो संरक्षित है जिसका अर्थ है दैहिक स्वतंत्रता का होना। यह मुख्य रूप से पर्याप्त सबूतों के बिना अवैध काराबास के मामले में प्रचलित है।

शिक्षा के अधिकार को 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा अनुच्छेद 21ए के तहत मौलिक अधिकार में जोड़ा गया था; यह राज्य को 6-14 वर्ष की आयु के बीच सभी बच्चों को ‘मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा’ प्रदान करने के लिए निर्धारित कार्य करता है।

अनुच्छेदु 22 मनमानी गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध सुरक्षा उपायों से संबंधित है।

शोषन के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)

अनुच्छेद 23 मनुष्यों के दुर्व्यापार पर रोक लगाता है और बलात् श्रम का प्रतिषेध करता है।

अनुच्छेद 24 कारखानों, खदानों आदि जैसे खतरनाक स्थानों में 14 साल से कम आयु के बच्चों के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है।

धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25-28)

अनुच्छेद 25 अंतःकारण की स्वतंत्रता और धर्म को बिना किसी बाधा के मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता से संबंधित है।

अनुच्छेद 26 व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का, अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का, विधि सम्मत संपत्ति के अर्जन, स्वामित्व व प्रशासन का अधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छे 27 धार्मिक अभिवृद्धि के लिए करों का भुगतान नहीं करने की स्वतंत्रता देता है।

अनुच्छेद 28 के अनुसार पूरी तरह से राज्य के स्वामित्व बाले किसी भी शिक्षण संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। अन्य मान्यता प्राप्त और राज्य द्वारा सहायता प्राप्त संस्थानों में धार्मिक उपासना तथा पूजा में सभी लोगों को भाग लेने या भाग नहीं लेने की स्वतंत्रता प्राप्त होगी। अनुच्छेद 29 और 30 संस्कृति और शिक्षा से संबंधित अधिकार हैं।
समानता : कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान अनुप्रयोग

समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान अनुप्रयोग; इस अनुछेद में एक समान समाज बनाने के सार्वभीमिक रूप से स्वीकृत मानकों को अपनाकर व्यापक रूप से समानता के मुद्दे को सम्मिलित करते हैं।

अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से संबंधित है। कानून के समक्ष समानता का अर्ध है कि किसी भी व्यक्ति को देश के कानून के संबंध में कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत संघ बनाम चरणजीत लाल चौधरी (1950) वाद में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 14 के उपयोग की व्याख्या की गई,

I. “समान सुरक्षा” से हमारा अर्थ है “समान स्थितियों में समान सुरक्षा”।
2. राज्य विधायी उद्देश्यों के लिए यथोचित वर्गीकरण कर सकता है।
3. विधान तर्कसंगतता की धारणा द्वारा समर्थित है।
4. कानून का विरोध करने वालों पर सबूत का भार होता है।

कानून के समान संरक्षण का अर्थ कानून द्वारा समान परिस्थितियों में व्यवहार की समानता है और यह अलग-अलग परिस्थितियों में अंतर भी अनुमति देता है। उदाहरण के लिए पुरुषों और महिलाओं के बीच असमान परिस्थितियों के कारण ही भारत में महिलाओं को एक कानून के अधिनियमन के अंतर्गत अनुकूल स्थितियों में रखा जा सकता है।

अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है।

अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता प्रदान करता है।

अनुच्छेद 17 भारत में प्रचलित अस्पृश्यता को समाप्त करता है।

अनुच्छेद 18 राज्य द्वारा नागरिकों के समान व्यवहार के युग की ओर ले जाने वाले सभी प्रकार के उपाधि को समाप्त कर देता है।
बंधुत्व : प्रतिष्ठा, एकता तथा अखंडता

प्रत्येक राज्य एक लक्ष्य के रूप में राष्ट्रीय एकीकरण प्राप्त करने का प्रयास करता है। यह लोगों की प्रतिष्ठा को बनाए रखने और बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहित करने के माध्यम से पूरा किया जा सकता है। विभिन्न संस्कृति, धर्म, भाषाओं, जातियों और समुदायों वाले वेश में राष्ट्रीय एकता बनाने के लिए, बंधुत्व की भावना का पोषण करना अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 1976 में प्रस्तावना में उचित परिवर्तन किया गया और भारतीयों में बंधुत्व की भावना को मज़बूत करने के लिए इसे इसमें शामिल किया गया। वह एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा की रक्षा करना भी चाहता है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सशक्त करने एवं बंधुत्व की भावना को विकसित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार दिए गए हैं।

अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण से संबंधित है। यह राज्य द्वारा बनाई गई या राज्य से वित्त प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए धर्म, जाति, लिंग, भाषा के आधार पर हो रहे भेदभाव पर रोक लगाता है।

अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदाय को उनकी लिपि और संस्कृति के संरक्षण के लिए शैक्षिक संस्थान का प्रबंधन और प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है।

सवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

यह सबसे महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है क्योंकि यह नागरिकों को भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सर्वोच्च न्यायलय में जाने का अधिकार प्रदान करता है। यह अनुच्छेद 32 है जो भारतीय संविधान के भीतर मौलिक अधिकार को इतना गौरवपूर्ण स्थान देता है।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

यह सबसे महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है क्योंकि यह नागरिकों को भाग III द्वारा प्रदत अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार प्रदान करता है। यह अनुच्छेद 32 है जो भारतीय संविधान के भीतर मौलिक अधिकार को इतना गौरवपूर्ण स्थान देता है।

उपरोक्त संवैधानिक मूल्यों को प्राप्त करने के लिए, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के रूप में कई प्रमुख प्रावधानों का उल्लेख किया गया है जो कि इस प्रकार से हैं :-

राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत

(अनुच्छेद 36-51, भाग IV) में निहित निर्देश भारत के सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के लिए एक व्यापक कार्यक्रम को निर्धारित करते हैं। संविधान निर्माताओं के पास निर्देशों को इस प्रकार से तैयार करने की दूरदर्शिता थी, जहां अम्बेडकर का विचार था कि भविष्य की सरकारों को डीपीएसपी के तहत निर्देशों को लागू करने में उनकी सफलता या विफलता के लिए आंका जाएगा। यह मौलिक अधिकारों से इस अर्थ में भिन्न है कि इन निर्देशों के पीछे कोई कानूनी स्वीकृति प्राप्त नहीं है। अनुच्छेद 37 इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है कि ये प्रावधान देश के शासन में मौलिक हैं और राज्य इन सिद्धांतों को कानून बनाने में लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। यह आयरिश संविधान से लिया गया है तथा मौलिक अधिकारों के विपरीत, ये राज्य के लिए सकारात्मक दायित्व हैं।
वर्गीकरण

डीपीएसपी को चार अलग-अलग आदर्शों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है जो इसे बढ़ावा देने का प्रयत्न करता है। वे समाजवादी आदर्श, पश्चिमी उदारवादी आदर्श, गाँधीवादी आदर्श तथा स्वतंत्रता संग्राम के आदर्श हैं।

1) समाजवादी आदर्श (न्याय- सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक) : (अनुच्छेद 38,39,41,42,43, 43ए, 43बी, 45) इसमें आय में असमानताओं को कम करने के निर्देश और अनुच्छेद 38 से स्थिति प्रवाह में असमानताओं को समान करने का प्रयास किया गया है। अनुच्छेद 39 पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए आजीविका का पर्याप्त साधन बनाने का प्रयत्न करता है। अनुच्छेद 41 काम के अधिकार के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्देश है जबकि अनुच्छेद 42 के तहत राज्य काम की न्यायपूर्ण और मानवीय दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए एवं महिलायों की प्रसूति सहायता के लिए उपलब्ध करता है।

अनुच्छेद 43 सभ्य जीवन-स्तर को बढ़ावा देने और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए एक निर्देश है। अनुच्छेद 43ए श्रमिकों को उद्योगों के प्रबंधन में सहभागी बनाने से संबंधित है। 97वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 43बी में सहकारी समितियों के पेशेवर प्रबंधन का एक प्रयास किया गया है। अनुच्छेद 45 में 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा का प्रावधान शामिल है। ये सभी आदर्श समाजबादी तर्ज पर एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर ले जाते हैं जिससे समाजवादी आदर्शों को बढ़ावा मिलता है।

2) गाँधीवादी आदर्श (अनुच्छेद 40,46,47,48) : अनुच्छेद 40 में पंचायत राज का उल्लेख किया गया है। ऐसे संगठन ग्रामीण संरचना के आधार के रूप में गाँव के सामाजिक-राजनीतिक जीवन को व्यवस्थित करने के लंबे समय से चले आ रहे गाँधीवादी सपने को पूरा करता है। ग्राम पंचायत के संगठन का निर्देश 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन (1993) द्वारा साकार किए गए उसी सपने को साकार करना है जिससे भारत में पंचायती राज की शुरुआत हुई। अनुच्छेद 46 अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य कमज़ोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने से संबंधित है। अनुच्छेद 47 पोषाहार स्तर और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार से संबंधित है। अनुच्छेद 48 कृषि और पशुपालन के संगठन पर एक महत्वपूर्ण निर्देश जारी करता है। यह गायों, बछड़ों एवं अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने के लिए भी कहता है।

3) पश्चिमी उदारवाद आदर्श (अनुच्छेद 39ए, 44, 50): अनुच्छेद 39 न्याय में समानता को बढ़ावा देने के लिए मुफ़्त कानूनी सहायता से संबंधित है। अनुच्छेद 44 नागरिक संहिता की एकरूपता को बढ़ावा देने के लिए भारत में समान नागरिक संहिता को लागू करने का निर्देश देता है जिससे एकता एवं अखंडता की भावना का विकास होता है। अनुच्छेद 50 राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को से अलग करने से संबंधित है।

4) स्वतंत्रता संग्राम के आदर्श (अनुच्छेद 48A, 49,51): अनुच्छेद 48A देश के वन, पर्यावरण तथा वन्य जीवन के संरक्षण का प्रयास करता है। अनुच्छेद 49 राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों, स्थानों एवं वस्तुओं के संरक्षण से संबंधित है। अनुच्छेद 51 का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।