भारत की गुटनिरपेक्षता नीति को वैश्विक राजनीति में स्वतंत्रता और तटस्थता के प्रतीक के रूप में सराहा गया, लेकिन इस नीति की कुछ प्रमुख कमजोरियाँ और सीमाएँ भी थीं, जिनकी आलोचना समय-समय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई है। गुटनिरपेक्षता नीति की आलोचना निम्नलिखित बिंदुओं में की जा सकती है:
1. आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद
- गुटनिरपेक्षता को अक्सर एक आदर्शवादी नीति माना गया, जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों की वास्तविकताओं (यथार्थवाद) से मेल नहीं खाती थी।
- वैश्विक शक्तियों के साथ सहयोग किए बिना भारत अपने रणनीतिक और सुरक्षा हितों को पूरी तरह सुरक्षित नहीं कर सका।
- आलोचक कहते हैं कि भारत को शीत युद्ध की प्रतिस्पर्धा में एक प्रमुख गुट का साथ देना चाहिए था ताकि अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास को और अधिक मजबूती दी जा सके।
2. तटस्थता का भ्रम
- आलोचकों का तर्क है कि भारत की गुटनिरपेक्षता “तटस्थता” नहीं थी।
- भारत ने कई मौकों पर सोवियत संघ का समर्थन किया, जैसे 1971 में भारत-रूस मैत्री संधि।
- यह तटस्थता की मूल भावना के विपरीत था और गुटनिरपेक्ष आंदोलन को कमजोर करता था।
- पश्चिमी देशों ने इसे भारत का छिपा हुआ झुकाव करार दिया।
3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रश्न
- शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता कम हो गई।
- द्विध्रुवीय विश्व समाप्त होने के बाद, गुटनिरपेक्षता के आधार कमजोर हो गए, और भारत के लिए यह नीति अप्रासंगिक लगने लगी।
- आलोचक यह भी कहते हैं कि शीत युद्ध के दौरान भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन विकासशील देशों के लिए ठोस परिणाम देने में असफल रहा।
4. आर्थिक विकास पर सीमित प्रभाव
- गुटनिरपेक्षता के तहत भारत ने बड़ी शक्तियों से बराबर दूरी बनाए रखने की कोशिश की, जिससे उसे वैश्विक व्यापार और निवेश के पर्याप्त अवसर नहीं मिल सके।
- पश्चिमी गुट के देशों से आर्थिक और तकनीकी सहयोग कम होने के कारण भारत का औद्योगिकीकरण अपेक्षित गति से नहीं हो पाया।
5. सुरक्षा और रणनीतिक चिंताओं की अनदेखी
- भारत ने गुटनिरपेक्षता के नाम पर रक्षा सहयोग को सीमित किया, जिससे पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी देशों के खतरे को कुशलतापूर्वक संबोधित नहीं किया जा सका।
- पाकिस्तान ने अमेरिका और चीन से सामरिक समर्थन हासिल किया, जबकि भारत ने इस संबंध में कमजोर स्थिति अपनाई।
6. गुटनिरपेक्ष आंदोलन का विफल नेतृत्व
- भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का संस्थापक सदस्य था, लेकिन आलोचकों का मानना है कि भारत इस आंदोलन को एक प्रभावी संगठन बनाने में असफल रहा।
- इस आंदोलन के तहत विकासशील देशों के लिए एकजुटता और ठोस आर्थिक सहायता के प्रयास सीमित रहे।
7. सोवियत संघ पर अत्यधिक निर्भरता
- भारत ने कई मामलों में सोवियत संघ का समर्थन किया, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण का प्रत्यक्ष आलोचना न करना।
- इससे पश्चिमी देशों के साथ भारत के संबंध कमजोर हुए और गुटनिरपेक्षता की नीति की निष्पक्षता पर सवाल उठे।
8. क्षेत्रीय नेतृत्व पर प्रभाव
- गुटनिरपेक्षता ने भारत के लिए क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने के अवसर सीमित किए।
- पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी देशों के आक्रामक रवैये के बावजूद भारत ने एक मजबूत गठबंधन बनाने की बजाय गुटनिरपेक्षता का अनुसरण किया, जिससे इसका क्षेत्रीय नेतृत्व कमजोर हुआ।
9. सैन्य और तकनीकी विकास पर प्रभाव
- गुटनिरपेक्षता के कारण भारत ने कई सैन्य और तकनीकी साझेदारी के अवसर खो दिए।
- पश्चिमी देशों से हथियार और तकनीक प्राप्त करने में भारत को कठिनाई हुई।
निष्कर्ष
भारत की गुटनिरपेक्षता नीति, अपने समय में नैतिक और वैचारिक दृष्टि से सराहनीय थी, लेकिन इसे प्रभावी ढंग से लागू करने में कई सीमाएँ थीं। इसने भारत को वैश्विक मंच पर स्वतंत्रता और पहचान तो दिलाई, लेकिन यह नीति आर्थिक विकास, सुरक्षा चिंताओं और रणनीतिक हितों को पूरी तरह साधने में असफल रही। आज के बहुध्रुवीय विश्व में, भारत को अपनी नीति को बदलते वैश्विक संदर्भों के अनुसार अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी बनाने की आवश्यकता है।